دونوں مجرم تھے خطا کچھ تو ہوئی لیلیٰ سے اور لوگوں نے فقط قیص کو پتّھر مارے رضوان حیدر कभी क़तरा तो कभी उसको समन्दर मारे वो भी एैसा है के हर ताज पे ठोकर मारे दोनों मुजरिम थे ख़ता कुछ तो हुई लैला से और दुनिया ने फक़त क़य्स को पत्थर मारे कहता है आज का आशिक़ के नहीं वक़्त यहाँ कौन सर अपना कू ए यार में जा कर मारे