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कहीं धूप तो कहीं छाव है यही तो जिंदगी के पेच दाव ह

कहीं धूप तो कहीं छाव है
यही तो जिंदगी के पेच दाव है
कहती है ये प्रकृति सबसे
नहीं हर चीज का कोई एक सा भाव है
कहीं दिन तो कहीं रात है
सभी में कुछ न कुछ ख़ास बात है
कहती है ये प्रकृति सबसे
जाति धर्मों से भी बढ़कर मनुष्यता ही बड़ी कुल जात है
कहीं सुख तो कहीं दुख है
कोई तृप्त थोड़े में तो कहीं भूख ही भूख है
कहती है ये प्रकृति सबसे
मन मार तन धन में विलुप्त मनुष्य ही निरा मूर्ख है
कहीं मृत्यु शोक तो कहीं नव जीवन हर्षोल्लास है
कोई अपनों में भी नगण्य तो कोई परायों का भी ख़ास है
कहती है ये प्रकृति सबसे
मानवता ही एक आस ये जगत तो मिथ्या भोग विलास है....

  सारिका जोशी नौटियाल "सारा"

©Sarika Joshi Nautiyal
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