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KHAMOSHI ( ek vyatha) ©Aasifa Khanam जब कभी हमें

KHAMOSHI

( ek vyatha)

©Aasifa Khanam जब कभी हमें खामोश रहना पड़ता है तो मानो खयालातों को किसी ने इत्तेलाअ दे दी हो और वो अपने सारे सगे संबधियों को ले कर हम पर धावा बोल चुके होते हैं एक पल को समझ नही आता किस खयाल के वार से बचेंगे और ना जाने किस खयाल के वार से जख़्मी हो जाएंगे… कुछ ऐसी ही कैफियत, हालत मेरी इस वक़्त है मैं चुप हूँ लफ़्ज़ों के लिहाज से मगर भूकंप ओर तबाही भीतरी कोहनो में धमाके कर रहे हैं। अलग अलग किस्म के धमाके कर रहे हैं यह खयाल मेरे अंदर मगर मेरे पास बचाव का कोई ज़रिया नहीं।

जब बोलने का दिल था हालात देख कर नही बोल पाए अब जब से चुप हूँ किसी से बात करने का मन भी नहीं जैसे मैं खोई थी किसी भंवर में उससे निकलने के रास्ते खोज रही हूँ चुप हो कर मन की इस हलचल और व्याकुलता को किसी से बांटना चाहूँ तो मुझे पसंद और अपने भाव के अनुरूप कोई शब्द मिलते ही नहीं तो चुप हो जाती हूँ और पहले इन भावनाओं को लफ़्ज़ों में कह पाने के लिए उचित शब्दों की तलाश में जुट जाती हूँ

अभी यह तलाश खत्म नहीं हुई अभी और खोजना बाकी है अहसासों को लफ़्ज़ों में पिरोना बाकी है अपनी कैफियत का इज़हार कर पाना बाकी है अभी बहुत कुछ बाकी है ना जाने कब यह बाकी पूरा होगा न जाने कब दिल को थोड़ा सुकून होगा एक रब है जानता इस उलझन को और एक मेरा यह लेखन जिस से कुछ ख़यालों को मैने लफ्ज़ दे दिए हैं बस यही सहारा है इस बैचेनी ओर तनाव के हालात में मेरा….

जब कभी हमें खामोश रहना पड़ता है तो मानो खयालातों को किसी ने इत्तेलाअ दे दी हो और वो अपने सारे सगे संबधियों को ले कर हम पर धावा बोल चुके होते हैं एक पल को समझ नही आता किस खयाल के वार से बचेंगे और ना जाने किस खयाल के वार से जख़्मी हो जाएंगे… कुछ ऐसी ही कैफियत, हालत मेरी इस वक़्त है मैं चुप हूँ लफ़्ज़ों के लिहाज से मगर भूकंप ओर तबाही भीतरी कोहनो में धमाके कर रहे हैं। अलग अलग किस्म के धमाके कर रहे हैं यह खयाल मेरे अंदर मगर मेरे पास बचाव का कोई ज़रिया नहीं। जब बोलने का दिल था हालात देख कर नही बोल पाए अब जब से चुप हूँ किसी से बात करने का मन भी नहीं जैसे मैं खोई थी किसी भंवर में उससे निकलने के रास्ते खोज रही हूँ चुप हो कर मन की इस हलचल और व्याकुलता को किसी से बांटना चाहूँ तो मुझे पसंद और अपने भाव के अनुरूप कोई शब्द मिलते ही नहीं तो चुप हो जाती हूँ और पहले इन भावनाओं को लफ़्ज़ों में कह पाने के लिए उचित शब्दों की तलाश में जुट जाती हूँ अभी यह तलाश खत्म नहीं हुई अभी और खोजना बाकी है अहसासों को लफ़्ज़ों में पिरोना बाकी है अपनी कैफियत का इज़हार कर पाना बाकी है अभी बहुत कुछ बाकी है ना जाने कब यह बाकी पूरा होगा न जाने कब दिल को थोड़ा सुकून होगा एक रब है जानता इस उलझन को और एक मेरा यह लेखन जिस से कुछ ख़यालों को मैने लफ्ज़ दे दिए हैं बस यही सहारा है इस बैचेनी ओर तनाव के हालात में मेरा….

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