ऎ सुन तो जरा साहिल से समंदर मापने वाले ... गहराई खाक जानते लहरों से कांपने वाले ..। इतना याद रख ये आसमान तेरी आँख नहीं हैं... और कितना देख सकते हैं खिड़की से झाँकने वाले..। हम तेरी अौक़ात का अंदाज़ा लेकर चलतॆ हैं... यहां क़रीब तो आ ऐ हक़ीक़त से भागने वाले...। अपना ज़मीर तो बेच दिया बाक़ी क्यां रह गया हैं ... खुर्ची के लिए किसी के भी तलवे चाटने वाले..। अब कोसो मिलो दूर होके आज़ादी हंसती हैं... दायरो में मरॆ मिले हैं सरहदें आंकने वाले..। जो कभी अपना ना हुआ किसी का क्यां होगा ‘ख़ब्तुल’... तजुर्बे से महरूम यहां के सभी मानने वाले..। - ख़ब्तुल संदीप बडवाईक औक़ात (ख़ब्तुल)