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अखंड दीप जला फिर क्यों ? खंडन को आतुर । बाती का आ

अखंड दीप जला 
फिर क्यों ?
खंडन को आतुर ।
बाती का आलोक 
मिथ्या है हम 
जगतलोक ।
न कर क्षणभर 
अभिमान 
जगत की बाती 
जले तेल ,
जीवन बुझ आती।
ये अभिमान 
यूं मर जाती
ये  बाती जीवन जगमगाती 
हे दीप 
तुम खंडित न हो।

©दिलीप कुमार
  #रोशिनी