घोर कलियुग ये कैसा छाया हर घर बिक रहे जहां इंसान, मोल रिश्तों का समझ में ना आया। माटी के पुतले सा हो गया जीवन सब आदर्शों को रद्दी के भाव जलाया, पग पग चले सब अपनी शर्तों पर बुरे मंसूबों ने है गहरा जाल बिछाया। समय की है ये बेबस डोर चार दिन की जिंदगानी फिर भी कैसा.. ये बेहिसाब चाहतों का शोर । ना करे कोई भरोसा किसी पर ना ही दुख बंटे घर - द्वार, चहुं ओर छलावे का परचम अपनों पर नहीं किसी को ऐतबार। घोर कलियुग ये कैसा छाया एक-दूजे से ज्यादा, प्यारी सबको माया, बज रहा सब तरफ लोभ का डंका जो अब ना संभले तो समझो, लग गई इंसानियत की लंका। ©Kavita Bhardwaj #घोर #कलियुग