चार दिनों का मेला चार दिनों का मेला था, चार दिनों की चांँदनी सजाए थे कितने सुनहरे सपने, पल भर में ही बिखर गए लाख सोचा रोक लूँ चांँदनी को, मगर रोक न सका चली गई वह आँधी बनकर, मेरा स्वप्न महल उजार कर | ©DR. LAVKESH GANDHI #brokenbond # #चार दिनों का मेला#