रोज ख्वाहिशों का परिंदा दम तोड़ देता है रोज इन पंखों में फिर से उम्मीद भर जाती हैं... रोज बारिशें गरज कर मन की मिट्टी भिगोते हैं रोज ये रिसती आँखें रिस कर सूख जाती हैं... रोज टहनियों से टूट कर गिर जाता हूँ मैं रोज नया कँवल लिए कोई टहनी मुस्काती हैं... रोज हौसलों की ऊँची मीनार बनाता हूँ... रोज कोई खाई सी सोच, उसपे चढ़ जाती है... . रोज ख्वाहिशों का परिंदा दम तोड़ देता है रोज ये रिसती आँखें रिस कर सूख जाती हैं...