फिर से रफू करने तो बैठी हूँ... ज़िन्दगी की ये जो उघड़ी सी लिवास है... पर सुरु करूँ कहाँ से? वक्त से बस इतना सा सवाल है। विस्वास का जो धागा था ... जहाँ देखो वहीं गाँठ पड़ा सा है। और लिवास जो ज़िन्दगी का है... बस गुदड़ी सा उघड़ा पड़ा है। वक्त फिसला और धागा तंज पड़ा है... हर सुबह..वही हौसलों का ताना-बाना और शाम मायूसी का कटोरा लिये खड़ा है। सब अपने हैं.. या अपनो की भीड़ है? इस भीड़ में चिल्लाती मेरी ख़ामोशी मेरे चेहरे पर सुखी हँसी छोड़ जाती है सुखी हँसी, तंज़ विस्वास के धागे... होगी रफू ? ये जो उघड़ी ज़िन्दगी की लिवास है। ©Shikha Bhardwaj #ज़िन्दगी_की_लिवास #horror