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हाँ मगर ये भी है कि अथाह हों भी तो केवल इतनी की जि

हाँ मगर ये भी है कि अथाह हों भी तो केवल इतनी की जिसमें केवल धर्मानुसार ज़िन्दगी जी जीने की मांग हो उस ऊपरवाले से क्योंकि यदि जन्म मिला है, वो भी ऐसी पृष्टभूमि लिखकर की बाद में कौन अपना है कौन नहीं ये ज्ञात हो एवं हर क्षण ये लगे के मेरी क्या ग़लती की जन्म मिला और ये बतलाया गया कि तुम तो अकारण ही आ गए, हमें तो एक कन्या चाहिए थी तो इसमें एक की ज़िन्दगी और भाग्य को कुंठित करते हुए माना कि भगवान को क्यों दोष भाग्यशाली नहीं हुए तो भाग्य को क्यों दोष देना, क्योंकि हर पल झेला ही तो है, माता पिता सेज संबंधियों में प्यार और अपनेपन को सिर्फ ऊपरी सतह पे ही तो देखा है और ख़ुद महसूस करते हुए पिता के द्वारा या मां की ममता से परिपूर्ण उस लाड़ और प्यार को भले महसूस किया मगर यहां ये प्रश्न नहीं यहां ये प्रश्न है कि जब समूचे कुल का भाग्य ही भंग है तो हमारी पीढ़ी का क्या दोष, जो नियति है वो सब हो रहा है और होता रहेगा, इसलिए मैं किसी एक मज़हब समुदाय या कुल में मर्यादा और उससे उससे उपजित सिर्फ एकाकी धर्म और आचार विचार को न मानते हुए यदि अपनी जीवनशैली का मापदंड रखते हुए अगर सर्व विश्व का हुआ और मन मेरा किसी एकाकी धर्म य्या जात य्या पात से लगाव न रखते हुए सर्वधर्मसभाव का भाव रखूं और बाह्य दुनिया को समझता हूं और अपने आपको ढालता हूँ और इसमें यदि मेरा अपना समाज या अपने ख़ून के रिश्ते के लोग ही मुझे समझाते हैं..... तो बताइए फिर भी में गलत हूँ सबके लिए ख़ासकर के अपने ही परिवार के लिए जिन्होंने मुझे कभी आंतरिक स्पष्टता से समझा ही नहीं और न ही आंतरिक तौर पे शायद मैं ही नहीं समझ पाया क्योंकि इतनी लोकव्यवहारिता का ज्ञान तो बोहोत था मगर उसे निजी और बाह्य ज़िंदगी में कभी उपयोग नहीं हुआ क्योंकि हर कोई एक जैसा नहीं होता और न ही पांच उंगलियां बराबर होती हैं तो फिर क्या माना जाए कि ज़िन्दगी में इच्छाओं की अथाहता की कमी नहीं या जिंगदी सीधी थी और उसे खुलकर नहीं जिया गया शुरू से कुल में या जीने नही दिया गया क्योंकि एक इंसान दूसरे इंसान से जल-बूझकर उसके ऊपर टोना टोटका आदि करके जो थोड़ा पूजा से अर्जित पुण्य था उसे भी भस्म कर ये मंशा रखते हुए की इनके समूचे परिवार का नाश ही जाए और ये लोग मर जाएं तो ये कैसे अथाहता य्या ठीक इसकी उल्टा ये कैसी अनाथहता जिसमें इच्छाओं का दमन हो, अरे ताउम्र परिवार ने यही तो किया और सिखाया भी की गरीबी में रहो और कम इच्छा करो, किसी से न लड़ो न झगड़ो बस खुद को अच्छा रखो और मेहनत करो करते रहो और जैसे वो भगवान रखते है वैसे ही रहने की कोशिश करो तथा बदलाव की न सोचो और समय के साथ चलो.. क्या प्राप्त हुआ? इसलिए इतनी सोच मैंने उस वक़्त ही अपने मन के घर धारण कर ली कि जब मैं ठीक से वयस्क भी नहीं था, मेरा परिवार आम परिवार नहीं था जिसमें इतनी सारी कठिनाइयां और कुभाग्य था और हमेशा रहेगा मगर आज हद हो गयी क्योंकि पहले से मेरी कोशिशें अपने संकुचित जीवन के वर्ग से हटकर थीं ही और तब मैंने कुछ फैसले किये थे कि ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीऊंगा और समझ से जुडुंगा और अपने आपको खोलने की कोशिश करूँगा और यदि ठोकर भी खाऊँगा तो रो तो अकेला लूंगा मगर क़सम हैं उन भावनाओं की और मेरे भगवान, या अल्लाह, या यीशु या वाहे गुरु की कि ज़िन्दगी से आँख से आंख मिलाकर लड़ता रहूँगा, जीता जागता रहूँगा जबतक रहूँगा । अगर भगवान ने शक्ति दी तो यहां लिखता रहूँगा । बाकी वी तो तुम्हें सताने के इरादे से नहीं था कि जा रहा हूँ यहां से हमेशा के लिये वो इसलिए था ताकि तुम्हें और जन सकूँ पहचान सकूँ क्योंकि एक यही ज़रिया बचा था क्योंकि पहले तुम मने नहीं जब मैं तुमसे सच में तुम्हारा फ़ोन नंबर मांगा था क्योंकि सच्चाई से सब बताना था जो कि मैं यहाँ इस जगह लिख नही सकता हूँ अब भी क्योंकि कुछ बातें निजी सी होती है जो किसी से तुम आशा और विश्वास रखते हुए करते हो तब और इसी कारण तुमसे मैं थोड़ा थोड़ा नाराज़ हुआ पर माफ कर दिया फिर ये सोचते हुए की अभी तुम्हें भ्य अबतक कुछ मालूम नहीं और तुमने मुझे प्रेम के ऊपर लिखने के लिये सन्देश भेज दिया यहाँ इस प्लेटफार्म की ओर की तरफ ओर मैंअपनी कला लिखने की दिख दी तुम्हें और सार्वजनिक तौर पर तुम भी भुकते और मैं भी और...

रही बात तुम्हारी यदि तुम से पहले तो कोई गिला होता तो न मैं तुम्हें कुछ कहता य्या लिखता, तुम तो यूँ ही बिना मतलब के परेशान हो मुझसे जबकि सारी जिंदगी और दाग और खुशियाँ तुम्हें छोटी छोटी बातों से बताने की कोशिश की हैं ऐसा नहीं है कि तुम्हें कभी अलग रखा है य्या मैं काम लिखता हूँ और तुम आशा से परिपूर्णता लिए मेरा इंतेज़ार करते हो बल्कि इसलिए लिखता हूँ क्योंकि मेरे कम शब्द ही वो भी कभी कभी में बोहोत बातें होती हैं जिन्हें शायद ही तुम समझ पाओगे जैसे मेरी एक आदत है शांति और ख़ामोशी । ये ना मेरी कमज़ोरी है न ही कुछ और, बाकी कहने वाले दूसरे कहते रहें और बोलते रहें क्योंकि वे सब उस दर्शक के समन्वय रूप से हैं जो पहले दिख उसपर जाएंगे और यथार्थ और कारण को धकेलते हुए अपना स्वतः ही सिद्ध करेंगे और कुछ नहीं तो य्या तारीफ करेंगे और भावुकतापूर्ण विश्लेषण देंगे । इसलिए तुम अब देख लो अगर तुमने साथ देना है या अपनी ही कहानी हमेशा कह के मुझे की गलत और कुसूरवार ठहराते रहना है ।

सुप्रभात।
इंसान की ज़रूरतें
और उसकी चाहतें 
ज़रूरी नहीं अथाह हों...
हाँ मगर ये भी है कि अथाह हों भी तो केवल इतनी की जिसमें केवल धर्मानुसार ज़िन्दगी जी जीने की मांग हो उस ऊपरवाले से क्योंकि यदि जन्म मिला है, वो भी ऐसी पृष्टभूमि लिखकर की बाद में कौन अपना है कौन नहीं ये ज्ञात हो एवं हर क्षण ये लगे के मेरी क्या ग़लती की जन्म मिला और ये बतलाया गया कि तुम तो अकारण ही आ गए, हमें तो एक कन्या चाहिए थी तो इसमें एक की ज़िन्दगी और भाग्य को कुंठित करते हुए माना कि भगवान को क्यों दोष भाग्यशाली नहीं हुए तो भाग्य को क्यों दोष देना, क्योंकि हर पल झेला ही तो है, माता पिता सेज संबंधियों में प्यार और अपनेपन को सिर्फ ऊपरी सतह पे ही तो देखा है और ख़ुद महसूस करते हुए पिता के द्वारा या मां की ममता से परिपूर्ण उस लाड़ और प्यार को भले महसूस किया मगर यहां ये प्रश्न नहीं यहां ये प्रश्न है कि जब समूचे कुल का भाग्य ही भंग है तो हमारी पीढ़ी का क्या दोष, जो नियति है वो सब हो रहा है और होता रहेगा, इसलिए मैं किसी एक मज़हब समुदाय या कुल में मर्यादा और उससे उससे उपजित सिर्फ एकाकी धर्म और आचार विचार को न मानते हुए यदि अपनी जीवनशैली का मापदंड रखते हुए अगर सर्व विश्व का हुआ और मन मेरा किसी एकाकी धर्म य्या जात य्या पात से लगाव न रखते हुए सर्वधर्मसभाव का भाव रखूं और बाह्य दुनिया को समझता हूं और अपने आपको ढालता हूँ और इसमें यदि मेरा अपना समाज या अपने ख़ून के रिश्ते के लोग ही मुझे समझाते हैं..... तो बताइए फिर भी में गलत हूँ सबके लिए ख़ासकर के अपने ही परिवार के लिए जिन्होंने मुझे कभी आंतरिक स्पष्टता से समझा ही नहीं और न ही आंतरिक तौर पे शायद मैं ही नहीं समझ पाया क्योंकि इतनी लोकव्यवहारिता का ज्ञान तो बोहोत था मगर उसे निजी और बाह्य ज़िंदगी में कभी उपयोग नहीं हुआ क्योंकि हर कोई एक जैसा नहीं होता और न ही पांच उंगलियां बराबर होती हैं तो फिर क्या माना जाए कि ज़िन्दगी में इच्छाओं की अथाहता की कमी नहीं या जिंगदी सीधी थी और उसे खुलकर नहीं जिया गया शुरू से कुल में या जीने नही दिया गया क्योंकि एक इंसान दूसरे इंसान से जल-बूझकर उसके ऊपर टोना टोटका आदि करके जो थोड़ा पूजा से अर्जित पुण्य था उसे भी भस्म कर ये मंशा रखते हुए की इनके समूचे परिवार का नाश ही जाए और ये लोग मर जाएं तो ये कैसे अथाहता य्या ठीक इसकी उल्टा ये कैसी अनाथहता जिसमें इच्छाओं का दमन हो, अरे ताउम्र परिवार ने यही तो किया और सिखाया भी की गरीबी में रहो और कम इच्छा करो, किसी से न लड़ो न झगड़ो बस खुद को अच्छा रखो और मेहनत करो करते रहो और जैसे वो भगवान रखते है वैसे ही रहने की कोशिश करो तथा बदलाव की न सोचो और समय के साथ चलो.. क्या प्राप्त हुआ? इसलिए इतनी सोच मैंने उस वक़्त ही अपने मन के घर धारण कर ली कि जब मैं ठीक से वयस्क भी नहीं था, मेरा परिवार आम परिवार नहीं था जिसमें इतनी सारी कठिनाइयां और कुभाग्य था और हमेशा रहेगा मगर आज हद हो गयी क्योंकि पहले से मेरी कोशिशें अपने संकुचित जीवन के वर्ग से हटकर थीं ही और तब मैंने कुछ फैसले किये थे कि ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीऊंगा और समझ से जुडुंगा और अपने आपको खोलने की कोशिश करूँगा और यदि ठोकर भी खाऊँगा तो रो तो अकेला लूंगा मगर क़सम हैं उन भावनाओं की और मेरे भगवान, या अल्लाह, या यीशु या वाहे गुरु की कि ज़िन्दगी से आँख से आंख मिलाकर लड़ता रहूँगा, जीता जागता रहूँगा जबतक रहूँगा । अगर भगवान ने शक्ति दी तो यहां लिखता रहूँगा । बाकी वी तो तुम्हें सताने के इरादे से नहीं था कि जा रहा हूँ यहां से हमेशा के लिये वो इसलिए था ताकि तुम्हें और जन सकूँ पहचान सकूँ क्योंकि एक यही ज़रिया बचा था क्योंकि पहले तुम मने नहीं जब मैं तुमसे सच में तुम्हारा फ़ोन नंबर मांगा था क्योंकि सच्चाई से सब बताना था जो कि मैं यहाँ इस जगह लिख नही सकता हूँ अब भी क्योंकि कुछ बातें निजी सी होती है जो किसी से तुम आशा और विश्वास रखते हुए करते हो तब और इसी कारण तुमसे मैं थोड़ा थोड़ा नाराज़ हुआ पर माफ कर दिया फिर ये सोचते हुए की अभी तुम्हें भ्य अबतक कुछ मालूम नहीं और तुमने मुझे प्रेम के ऊपर लिखने के लिये सन्देश भेज दिया यहाँ इस प्लेटफार्म की ओर की तरफ ओर मैंअपनी कला लिखने की दिख दी तुम्हें और सार्वजनिक तौर पर तुम भी भुकते और मैं भी और...

रही बात तुम्हारी यदि तुम से पहले तो कोई गिला होता तो न मैं तुम्हें कुछ कहता य्या लिखता, तुम तो यूँ ही बिना मतलब के परेशान हो मुझसे जबकि सारी जिंदगी और दाग और खुशियाँ तुम्हें छोटी छोटी बातों से बताने की कोशिश की हैं ऐसा नहीं है कि तुम्हें कभी अलग रखा है य्या मैं काम लिखता हूँ और तुम आशा से परिपूर्णता लिए मेरा इंतेज़ार करते हो बल्कि इसलिए लिखता हूँ क्योंकि मेरे कम शब्द ही वो भी कभी कभी में बोहोत बातें होती हैं जिन्हें शायद ही तुम समझ पाओगे जैसे मेरी एक आदत है शांति और ख़ामोशी । ये ना मेरी कमज़ोरी है न ही कुछ और, बाकी कहने वाले दूसरे कहते रहें और बोलते रहें क्योंकि वे सब उस दर्शक के समन्वय रूप से हैं जो पहले दिख उसपर जाएंगे और यथार्थ और कारण को धकेलते हुए अपना स्वतः ही सिद्ध करेंगे और कुछ नहीं तो य्या तारीफ करेंगे और भावुकतापूर्ण विश्लेषण देंगे । इसलिए तुम अब देख लो अगर तुमने साथ देना है या अपनी ही कहानी हमेशा कह के मुझे की गलत और कुसूरवार ठहराते रहना है ।

सुप्रभात।
इंसान की ज़रूरतें
और उसकी चाहतें 
ज़रूरी नहीं अथाह हों...
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Madhav Jha

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