हर आदमी अब शक के घेरे में है , इंसानियत का वजूद अब अंधेरे में है। ज़िंदा क़ौमे अब बची ही कहा है , धरती अपने आख़री फेरे में है । लंबी फेहरिस्त है जुदा जुदा कौमो की, ख़ुदा न जाने किस मज़हबी डेरे में है। इंसानियत का गला कटता यहां रोज , दरिंदे हर गली हर डगर हर बसेरे में है। किसी को चाह नही है आजकल शब की, हर किसी की ख़्वाहिश सुबह सवेरे में है। वज़ूद-ए-इंसानियत #वज़ूद #इंसानियत #आदमी #शक #कौम #मज़हब #ख़ुदा #दरिंदे #शब #सवेरा #ज़िंदा