मझधार में
आस की देहरी पर विश्वास का एक दीपक जलाया है,
बैरी हवाएं हमेशा की तरह फिर चल पड़ी हैं मुझे अंधेरों की ओर धकेलने!
कह दो इनसे बस बहुत हुआ,
एक जन्म में सारी परीक्षाएं न ले!
नहीं बची हिम्मत, न इच्छा अब तपकर कुंदन बनने की!
मैं अय ही बनी रहूँ बस, अब यही श्रेयस्कर है।