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अपने जीवन को समझना हमारी जीवन-शैली का अंग रहा है स

अपने जीवन को समझना हमारी
जीवन-शैली का अंग रहा है
स्वाध्याय काल में स्वयं के बारे में
चिन्तन करते रहना
एक नियमित आवश्यकता है।
इसी से व्यक्ति शनै:-शनै:
अपने मूल स्वरूप तक पहुंच पाता है।
अपने संस्कारों का परिष्कार कर पाता है।
वह स्वयं को सृष्टि का अंग समझता है
तथा आवरण दूर होने के साथ ही
उसकी मूल शक्तियां जागृत हो जाती हैं।
उसकी सामाजिक उपादेयता भी
स्वत: बढ़ जाती है। 💕☕good morning ji 💕👨☕☕☕🍫🍫🍫💕💕👨🍧🍧🍧💓💓😊💞💞💕👨☕🍫👨
संस्कार जीवन-व्यवहार का महत्वपूर्ण पहलू है। व्यावहारिक जीवन का आधार है और व्यक्ति की पहचान भी है। यही व्यक्ति के भावी कर्मो के आधार भी होते हैं। इसीलिए हमारे दर्शन ने सुसंस्कृत बनने पर इतना महžव दिया है। यहां तक कि जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन को सोलह संस्कारों से विभूषित भी किया है।
कुछ संस्कार व्यक्ति के जन्म के साथ ही आते हैं। ये पिछले जन्मों से जुड़े होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि आज के मनोवैज्ञानिक भी करने लगे हैं। उनका शोध तो भारत की धारणा से भी बहुत आगे निकल गया है। उनका मानना है कि पिछले संस्कारों का प्रभाव जन्म-काल में ही विस्मृति में चला जाता है, किन्तु वह जीवन-भर व्यक्ति के साथ जुड़ा रहता है। 
बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसके सामने माँ-बाप की सीख इतनी आ जाती है कि उसके अपने स्वरूप की समझ ढक जाती है। जीवन-व्यवहार में धीरे-धीरे अन्य मान्यताएं, अवधारणाएं, सामाजिक परम्परा, नियम-कायदे उसके मन पर एक आवरण बनाते जाते हैं, उसके संस्कारों का मूल स्वरूप ढकता चला जाता है।
माँ और पिता के अंश भी व्यक्ति में होते हैं जो उसके व्यक्तित्व-विकास में अपना प्रभाव जीवन-पर्यन्त बनाए रखते हैं। व्यक्ति का रिश्ता माता-पिता से कभी नहीं टूटता। ऊर्जा क्षेत्र में होने वाले शोध इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि व्यक्ति के चारों ओर जो ऊर्जा का क्षेत्र है, उसका विशेष भाग माता-पिता से ही जुड़ा रहता है।
💕💕☕☕🍫💞👨
:😊💐
क्रमशः----
अपने जीवन को समझना हमारी
जीवन-शैली का अंग रहा है
स्वाध्याय काल में स्वयं के बारे में
चिन्तन करते रहना
एक नियमित आवश्यकता है।
इसी से व्यक्ति शनै:-शनै:
अपने मूल स्वरूप तक पहुंच पाता है।
अपने संस्कारों का परिष्कार कर पाता है।
वह स्वयं को सृष्टि का अंग समझता है
तथा आवरण दूर होने के साथ ही
उसकी मूल शक्तियां जागृत हो जाती हैं।
उसकी सामाजिक उपादेयता भी
स्वत: बढ़ जाती है। 💕☕good morning ji 💕👨☕☕☕🍫🍫🍫💕💕👨🍧🍧🍧💓💓😊💞💞💕👨☕🍫👨
संस्कार जीवन-व्यवहार का महत्वपूर्ण पहलू है। व्यावहारिक जीवन का आधार है और व्यक्ति की पहचान भी है। यही व्यक्ति के भावी कर्मो के आधार भी होते हैं। इसीलिए हमारे दर्शन ने सुसंस्कृत बनने पर इतना महžव दिया है। यहां तक कि जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन को सोलह संस्कारों से विभूषित भी किया है।
कुछ संस्कार व्यक्ति के जन्म के साथ ही आते हैं। ये पिछले जन्मों से जुड़े होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि आज के मनोवैज्ञानिक भी करने लगे हैं। उनका शोध तो भारत की धारणा से भी बहुत आगे निकल गया है। उनका मानना है कि पिछले संस्कारों का प्रभाव जन्म-काल में ही विस्मृति में चला जाता है, किन्तु वह जीवन-भर व्यक्ति के साथ जुड़ा रहता है। 
बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसके सामने माँ-बाप की सीख इतनी आ जाती है कि उसके अपने स्वरूप की समझ ढक जाती है। जीवन-व्यवहार में धीरे-धीरे अन्य मान्यताएं, अवधारणाएं, सामाजिक परम्परा, नियम-कायदे उसके मन पर एक आवरण बनाते जाते हैं, उसके संस्कारों का मूल स्वरूप ढकता चला जाता है।
माँ और पिता के अंश भी व्यक्ति में होते हैं जो उसके व्यक्तित्व-विकास में अपना प्रभाव जीवन-पर्यन्त बनाए रखते हैं। व्यक्ति का रिश्ता माता-पिता से कभी नहीं टूटता। ऊर्जा क्षेत्र में होने वाले शोध इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि व्यक्ति के चारों ओर जो ऊर्जा का क्षेत्र है, उसका विशेष भाग माता-पिता से ही जुड़ा रहता है।
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