जो मुझमें है बात,क्या तुम उसमें पा पाओगी! हम तो ढीठ थे जो तेरे लाख मना करने पर भी आते रहे जितनी दफा तुम रूठे, उतनी दफा तुम्हें मनाते रहे जिस तरह मना किया मुझे,क्या उसको मना कर पाओगी! लाख मसरूफियत थी,फिर भी तेरे लिए मौजूद रहा तुझे पाने को,गिरा अपनी नजरों मे, छल्ली मेरा वजूद रहा अरे जिस तरह किया बेजार मुझे, क्या उसे भी कर पाओगी! तेरे इक दीद को जाने कितने जतन किये हैं बांधा धागा मन्नत का,मंदिर मे जलाए दिये हैं जितना तडपाया,तरसाया मुझे,क्या उसको सता पाओगी! आज सही गलत का फर्क बता रही हो मुझे वास्ता देकर बेबसी का,समझा रही हो मुझे जिसने दिये दर्द हजार, तेरा होकर, क्या ये फर्क उसको समझा पाओगी!