विधवा सफेद रंग हां यही वो रंग है जब उसके बदन पर लपेटा जाता है कटी पतंग सी होती जाती है ज़िंदगी विधवा होना ही अपने आप में एक गुनाह. सरीखा होता है अजीब रस्म बनाई है समाज ने पति ज़िन्दा है तो उसके हैं सब रंग पति के जाते ही दुनिया बेरंग जो कल तक सौभाग्यशाली कही जाती थी आज उसकी परछाईं को भी घूरती सवालिया नजरें उस औरत की सारी इच्छायें और खुशी सब पति के होने पर निर्भर करती हैं कल तक जिन रंगों पर जान छिड़कती थी आज उन रंगों पर नजर पड़ते ही उसकी जान जाती रहती है मन के भीतर उसने दर्द की गठरी बाँध रखी है कहे भी किससे ?जिससे कहती थी हर दुःख सुख वो गया ऐसा की समाज उसे अभागी विधवा कहता है स्वयं के सपने तो भूल ही गयी वो उसकी बिंदी- टिकली चूढ़ियां सब छूटे उसके किसी अजनबी से जरा हँस कर बात क्या कर ले उसके चाल -ढाल और चरित्र का प्रमाण अपेक्षित रहता है बच्चों की जिम्मेदारी संग जीती है उनका हौंसला बन बेशक खुद की ख़्वाहिश को हर रात मरते देखती है आसान नहीं विधवा रूप मे ज़िदा तिल तिल आपेक्षित मरना ©®करिश्मा राठौर #अन्तर्राष्ट्रीय_विधवा_दिवस