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अकड़ते थे जो कभी, जरा जरा सी बात पर, गरदन झुकाये घू

अकड़ते थे जो कभी, जरा जरा सी बात पर,
गरदन झुकाये घूमते हैं।
सर उठा के मिलते थे कभी,
मिरे शहर के लोग।
अब मोबाइल में आँखे गड़ाए दिखते हैं।

ओये, अबे , भिया सुन के नज़रे घुमाते थे,
अब महज नोटिफिकेशन की आहट सुनते हैं
अब बस मोबाइल में आंखे गड़ाए दिखते हैं।

अखबारों, किताबो, लायब्ररी वाचनालयों में ,
सुबह शाम टकरा जाते थे कभी।

अनंत सी दुनिया का इल्म,अब हथेली में ढूंढते हैं।
अब मोबाइल में आंख गढ़ाए दिखते हैं।

शिकायत करें क्या, शिकवा करें किससे,
अपनी भी फितरत कहाँ रही पहले जैसी
डायरी में दर्ज करते थे,सारे अहसास कभी
अब नोटपैड के टच में डूबे रहते  हैं।

लफ़्ज़ों में तो कोई फर्क नही होता मगर,
पन्ने में जो मिलता था लम्स,
वो टच में ढूंढते हैं।
अजीब हो चुके हैं हम,
कभी हाथ की लकीरों में,
तो कभी हथेली में, दुनिया ढूंढते हैं।

......बस मोबाइल में आँखे गड़ाए दिखते हैं।

नवाब"सैम" मोबाइल
अकड़ते थे जो कभी, जरा जरा सी बात पर,
गरदन झुकाये घूमते हैं।
सर उठा के मिलते थे कभी,
मिरे शहर के लोग।
अब मोबाइल में आँखे गड़ाए दिखते हैं।

ओये, अबे , भिया सुन के नज़रे घुमाते थे,
अब महज नोटिफिकेशन की आहट सुनते हैं
अब बस मोबाइल में आंखे गड़ाए दिखते हैं।

अखबारों, किताबो, लायब्ररी वाचनालयों में ,
सुबह शाम टकरा जाते थे कभी।

अनंत सी दुनिया का इल्म,अब हथेली में ढूंढते हैं।
अब मोबाइल में आंख गढ़ाए दिखते हैं।

शिकायत करें क्या, शिकवा करें किससे,
अपनी भी फितरत कहाँ रही पहले जैसी
डायरी में दर्ज करते थे,सारे अहसास कभी
अब नोटपैड के टच में डूबे रहते  हैं।

लफ़्ज़ों में तो कोई फर्क नही होता मगर,
पन्ने में जो मिलता था लम्स,
वो टच में ढूंढते हैं।
अजीब हो चुके हैं हम,
कभी हाथ की लकीरों में,
तो कभी हथेली में, दुनिया ढूंढते हैं।

......बस मोबाइल में आँखे गड़ाए दिखते हैं।

नवाब"सैम" मोबाइल
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