उलझते जमाने में उलझने आ रही है! मैं जितना सुलझा रहा हूं उतना उलझ जा रही है! कसना कहीं पर, किनारे न छूटे! किनारों की सलवट बदल जा रही है! खामोश राहों पे पसरा अंधेरा, अंधेरों की महफिल सजे जा रही है! मैं मेहमान उनका पलभर बना हूं! वो सत्कार ता उम्र किये जा रही है! न हम राह कोई! न कोई सहारा, बस उम्मीद मंजिल लिये जा रही है! ना कदमों के निशां है ना कोई कहानी, बे साया लिये बस लिये जा रही है! उलझती है तो जिंदगी की ये उलझन ये एहसान हम पे क्यों किये जा रही है! उलझते जमाने की उलझन मिटाने! की नाकाम कोशिश किये जा रही है! ©सौरभ कुमार "गाँगुली" The New Line...😍