निग़ाहों की परिधि बड़ी हो गयी दिखना मग़र कम हो चला है दूर की चीज़ों पर नज़र तो है क़रीब वाला गुम हो चला है. अब हम जाले बुनते हैं मकड़ी की तरह घुन खा रही है ज़िन्दगी लकड़ी की तरह रिश्तों के सन्नाटे में सब जीते हैं पल पल होंठ परेशां हैं झूठी हँसी हँसने में हरपल. स्वयं परिवर्तित हो रही रक्त की प्रवृति अब खून गाढ़ा नहीं पानी से पतला है. ©malay_28 #सन्नाटे