#OpenPoetry बिछड़ने का ज़रा भी ग़म नहीं था तबस्सुम उसके लब पे कम नहीं था किया रुख़सत ब चश्मे नम तो उसको दुख़ों के सामने सर ख़म नहीं था कभी कोशिश नहीं की रोकने की कि मेरे आंसू थे ज़म ज़म नहीं था अकेला रह गया हूं शहरे ग़म मैं तुम्हारे पास कोई ग़म नहीं था सर उसके क़दमों मैं रकखे है मन्ज़िल ज़रा चलने का जिसमें दम नहीं था मुहब्बत का अमीं कहती थी दुनिया लिये जो प्यार का परचम नहीं था मिटाने पर तुली थी मुझको दुनिया मगर वो शख़्स कोई कम नहीं था मेरे जज़बात की ढादी इमारत बज़ाहिर उसपे कोई बम नहीं था दिलों पर छा रही थी यास "नाज़िम" चिराग़ उम्मीद का मदधम नहीं था (नाज़िम शाह "नाज़िम") WhatsApp(9520326175) बिछड़ने का ज़रा भी ग़म नहीं था तबस्सुम उसके लब पे कम नहीं था किया रुख़सत ब चश्मे नम तो उसको दुख़ों के सामने सर ख़म नहीं था कभी कोशिश नहीं की रोकने की कि मेरे आंसू थे ज़म ज़म नहीं था अकेला रह गया हूं शहरे ग़म मैं तुम्हारे पास कोई ग़म नहीं था