(अनुशीर्षक में पढ़ें ) मैं अक्सर सोचता हूँ क्या करूँ इस देश की ख़ातिर मैं अक्सर सोचता हूँ और यूँही बैठ जाता हूँ मुझे शायद से सेना में चले जाकर लगाकर जान की बाज़ी निभाना है हर इक वो फर्ज़ जो होता है बेटे का, या शायद मैं मुसलसल बढ़ रहा आतंक अपने वश में कर लूँ, मिटा दूँ नाम तक उसका,