ग़ज़ल सूखी नदी की रेत में थोड़ी नमी तो है दुनिया की भीड़ में मुझे तेरी कमी तो है कैसे रुके भला ये ग़लतफहमियों का दौर कुछ धूल आईने पे अभी तक जमी तो है रातों में हम इसी से मशालें जलायेंगे इस खाक़ में बची जो अभी कुछ शमी तो है बारिश से आँखें साफ़ नहीं हो सकीं मगर इतना हुआ कि चश्मे नज़र शबनमी तो है दूभर है पेट भूख से "आज़ाद" क्या हुआ जालिम के सामने ये मेरा सर समी तो है @धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"