"आओ दीवाली की आड़ में अपना कल जलाते हैं। दीपक ,प्रेम पराग छोड़ो,चलो बारूद भरे पटाखे जलाते हैं। गूंगे बहरों को क्या फर्क पड़ता है, की हम क्या करते हैं। घर, गली ,चौराहे पे, बिछा दो बारूद का ढेर और शोर का कोहराम मचा दो, कितना दम था हमारे पटाखों में ये दुनिया को दिखा दो। धुंआ-धुआं करदो धरती से आसमान तक, खंज़र घोप दो प्रकृति की कोख पर, गढ्ढे खोद कर लकीर खींच दो, की हम लकीर के फकीर ही रहेंगे, सदियों से घनघोर दीवाली मनाते आए हैं ,मनाते रहेंगे। कल भी अपना कल जालाए थे, आगे भी अपना कल जलाते रहेंगे। हमने जंग लड़ी है। प्रकृति को बचाने में, तुम्हे भी आहुति देनी पड़ेगी नवांकुरित बीजों । तो आओ कसम खाओ हमारे साथ हम ऐसे ही पटाखों की दिवाली मानते हैं । दिए से तेल कापुस निकाल कर नेचर का खून जलाते है । आओ दीवाली की आड़ में अपना कल जलाते हैं। दीपक प्रेम पराग, छोड़ो चलो बारूद के पटाखे जलाते हैं ।" D. R. Nirdhan पटाखों की दीवाली मानते हैं.....