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उनसे बिछड़के खुद से भी मुलाक़ात न हुई कई दिनों से

उनसे बिछड़के खुद से भी मुलाक़ात न हुई
कई दिनों से अपने आप से भी, बात न हुई 

वक़्त भी अब हम से कुछ कटा कटा सा रहे
दिन भी न दिन रहा रात भी अब रात न हुई 

चौखट चुप,आंगन उदास,दीवारें हैं गुमसम
देखकर इस घर की विरानगी बर्दाश्त न हुई 

एक सज़ा सी यह उम्र गुजर रही है अब तो
ज़िंदगी तो अपने लिए, कोई सौगात न हुई 

मुकद्दर की है साज़िश या वक्त का तमाशा 
इसके पहले यूँ बिमार कभी जज़्बात न हुई 

उनसे बिछड़के खुद से भी मुलाकात न हुई
ये दुर्दशा अपनी यूँ ही तो अकस्मात न हुई.

©शैलेन्द्र यादव
  #मुक़द्दर