बड़े अकड़ से कहते हो हमें नजरें झुकाने को, जरा तुम नज़रिया बदल लेते तो फिर क्या ही कहना था|| अदब हमको सिखाते हो चलो कोई नहीं लेकिन, अदब जरा सा तुम भी,सीख ही लेते तो फिर क्या ही कहना था जिसे तूने किया बेजार बस चंद मिनटों में, वही आबरू मेरी असल में मेरा गहना था || अनझुई सी एक कली थी मैं मेरे बाबुल के बगिया की, बड़े हैवानियत से तूने मुझको रौंद डाला था|| पत्ता पत्ता भी रोया था तब मेरे गाँव में, न्याय के मंदिर से जब बाबुल लौट आये थे सबूतों के आभाव में हाँ जिन्दा थी मैं.. जिन्दा थी मैं समाज के तानों को सुनकर भी मगर बाबा को तिल तिल रोज मरते देखा करती थी.... बड़े बेआबरू होकर वो तेरे शहर में रहते थे... शायद बेटी को जनकर मन ही मन वो खुद को कोसते थे || किसी ने कहा कि बेटी को बाहर भेजते क्यों थे..... किसी ने यूँ कहा कि अदब जरा सिखला दिया होता || किसी ने ये कहा बेटी तेरी बेवाक हँसती थी, किसी ने ये कहा जुबा पे उसके ताला लगा दिया होता || बाबा के सिले लब मैं तब देख ना पाई.... ना देख पाई मैं उनकी झुकी हुई नजरें || सरेराह अलविदा ऐ मेरे अहबाब!अब जा रही हूँ मैं...... मेरे पीछे मेरे बाबा को अब कुछ भी नहीं कहना - 3 ऋचा राय.... ©Richa Rai ( गूंज ) #stereotype Society #coldnights