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*** बसंती सुबह *** कभी इतने सुबह उठिए कि खुद को ख

*** बसंती सुबह ***

कभी इतने सुबह उठिए कि खुद को खुद की आवाज सुनाई दे सके। पता है जब आप खुद की आवाज सुनने लगेंगे न तब आपको उस सुबह में आपसे पहले जगे हर उस नन्हें जीव की आवाज सुनाई देने लगेगी जिसको आप देख भी नहीं पाते हैं।

बेली ,चमेली की मनमोहक खुश्बूएं आपको मदहोश करने लगेंगी जिसको आप महंगी महंगी इत्र की बोतलों से भी हासिल न कर पाएंगे।

उठिए और उन फूलों के अधजगे पत्तों से मिलिए।उसकी टहनियों से बाते करिए। उनसे हाल चाल पूछिए जो अभी अभी अंगड़ाई लेकर जगी हैं और
फूलों,पत्तियों,टहनियों के मिले जुले महक को अपने हृदय के कोने कोने में घुलने दीजिए।फिर थोड़ा ध्यान कीजिए।आत्म को परमात्म से जोड़िए।भले आप जुड़ पाएं या न जुड़ पाएं लेकिन आपको प्रयास करना चाहिए। इसमे कुछ हानि भी तो नहीं है। परमात्म मिले न मिले आत्म तो जागृत हो ही जाएगा।

फिर क्या? फिर निकल पड़िए एक लम्बी सफर पर। नाप आइए रात के बारिश में भीगी उन सड़कों को जो आपको सुकून से भरने के लिए आपके कदमों की आहट के इंतजार में है। फिर गिनिए रास्ते के उन  पेड़ों को जिन्होंने रात की आंधी में हवा की थपेड़े सहें और एक दूसरे को सहारा देते देते इतना उलझ गए कि अभी तक सुलझने की कोशिश में उस माली की राह तक रहे हैं जो रात की केलि के बाद बिस्तर से चिपटा खर्राटे मार पड़ोसियों की नींद हराम कर रहा है।

जाइए और उन उलझी पेड़ों की टहनियों को सुलझाइए और उनके प्रकृतिस्थ निश्छल प्रेम के सुपात्र बनिए। फिर कुछ आगे बढ़िए। तेज कदमों से चलिए। हवा की सरसराहट को अपने बदन पर महसूस करिए। तन मन को ताजगी से भरिए। फिर कुछ मुंडी इधर उधर घुमाइए।कुछ चेहरों को कनखियों से ताड़िए।कुछ को देखकर मुँह बिचकाइए और जी में आए तो कुछ को देखकर अगली मोड़ से मुड़ ही जाइए।

फिर उस सड़क के किनारे बने ऊँचे  नीचे  बिल्डिंगों, घरों, दफ्तरों और उन पर चिपके उन पोस्टरों की शिनाख्त कीजिए जिसके मालिक ने अपने नौकर को धमकाकर उन दीवारों पर लगवाया है।यह और बात है कि हर दीवार पर लिखा है " यहां पोस्टर लगाना सख्त मना है।" पर क्या कीजै जैसे उस नौकर ने मालिक के धौंस से उस लिखे को अनदेखा किया है वैसे ही आप भी कर गुजरिए।

फिर उन बिल्डिंगों की ऊंचाई को अपने  दस बारह में पढ़े गणित के फॉर्मूलों से नाप जाइए और अपने भावी घर की कल्पना कर लीजिए। अब उनकी नाक नक्श और साज सज्जा पर आइए। एक एक को अपनी भोरहरी उनीदी अखियों से पतिया लीजिए ।कुछ कमी वमी हो तो वह भी निकाल लीजिए किसे फर्क पड़ता है।हां,लेकिन उसे अपनी दिमागी डायरी के पिछले पन्ने पर एक घेरा बनाकर लिख लीजिए ताकि समय पर बेमेहनत मिल जाए भले उस दिन आपको यह बेमतलब ही क्यों न लगे।

फिर सड़कों का पूँछ पकड़े बढ़ते जाइए। किनारे पर बने गोल घेरे में लगे नन्हें नन्हें पौधों की फुनगियों की कान मरोड़ते जाइए। किसे खबर आप वैज्ञानिक हैं या साहित्यकार ।आप उसकी नब्ज देख रहे हैं या प्यार के भावावेश में उसकी सुंदरता और कोमलता पर मुग्ध हो उसे चूटी काट रहे हैं।

फिर करिए तलाश किसी ऐसे उद्यान की जिसकी जमीन रात की आंधी में झड़े,सूखे ,मुरझाए ,पीले और हरीलेपीले (पीले हरे ) पत्तों से सजी हो और पत्ते बारिश की पानी से सने हो।जमीन थोड़ी भीगी हो थोड़ी सुखी हो और जमीनी महक से गमक रही हो। फिर निकालिए अपना हथेली भर का फोटो खीचन यंत्र और धड़ाधड़ कैद कर लीजिए उन लम्हों को अपने यंत्र की गैलीरियाई दिमाग़ में।

अब नजरें थोड़ा उपर उठाइए और नहाए पेड़ों की पत्तियों पर रुके नन्हें नन्हें बारिश की बूंदों को अपने जिस्मानी गरम होठों से लगाइए और उन पत्तों की तरह हरियरा जाइए। 

फिर वहां की झाड़ियों से थोड़ा बतियाइए ।उनका कुशल मंगल जानिए।फिर उनकी मुंडी पर अपनी गरम हथेली को रगड़ते वहां से खिसक लीजिए।

अब वहां की चबूतरों पर आइए।उनके धूल से सने और बारिश से भींगे बदन को देख मुँह बनाइए।फिर उसे पोछने के लिए इधर उधर ताका  झांकी करिए। कुछ न मिले तो दो चार सूखे पत्ते उठाइए और उन्हीं से अपने बैठने भर की जगह रगड़ मारिए । फिर बैठिए और थोड़ा गीला महसूस कीजिए और थोड़ा किरकिरा भी और खुद को कहिए "इतना तो चलता है कौन सा फैशन शो करने आए हैं जो कोई मेरा पिछवाड़ा निहारेगा।"

अब वहां की चिड़ियों की चहचहाहट को सुनिए और मन में नए विचारों को गुनिए।कुछ अपना धुन जोड़िए और कुछ पत्तों की झरझराहट को लीजिए। फिर नजरों को दौड़ाइए। वहां आते जाते इक्के दुक्के बदनों को निरखिए। एक अधेड़ उम्र की सभ्य महिला को किसी सतसंगी बाबा के गानों को लौडस्पीकर मोड़ पर डाल अपने कमर से कमरा बने कमर को फिर से कमरा से कमर बनाने की नाकाम कोशिशों पर मुश्कि मारिए।

अरे थहरिए ! अभी उठिए मत क्योंकि अब आएंगे शहर के मानित सम्मानित जानित पहचानित पचासा पार सीनियर सिटीजेन्स। आपका क्या है !आप बस वहीं बैठे रहिए सिर झुकाए तिरछी नजरों से उनके योगाभ्यास की आड़ी  टेड़ी आकृतियों को देखते रहिए और सुनते रहिए उनके दूरभाष यंत्र से निकलने वाले गानों की तान को " बेशरम रंग कहां देखा दुनिया वालो ने"

नहीं नहीं अभी भी नहीं उठना है! थोड़ी देर और धैर्य के साथ अपनी जगह पर जमे रहिए क्योंकि अब नंबर है राष्ट्र के नव निर्माताओं की जिन्हें उद्यान में अकेले जाना पाप सा लगता है। अगर गलती से आपकी और उनकी नजरें मिल गई तो वे आपको बेपहचानी नजरों से घूरेंगे और आप उन्हें फिर दोनो इधर उधर नजरें घुमा लेंगे और मन में कहेंगे "होगा कोई अपने को क्या" फिर वे लोग किसी पेड़ की छहियां तरे बैठकर थोड़ी गुफ़्तगू करेंगे । खाएंगे खिलाएंगे।पिएंगे पिलायेंगे।सबकी नजरें बचा चिपका चिपकी करेंगे हालांकि यह उनका भ्रम है क्योंकि यह जनता है सब जानती है।फिर आपको क्या तब तक तो आप वहां से निकल चुके होंगे और निकलते समय आप विद्यार्थियों के उस झुण्ड से तकराएंगे जिनके चेहरों पर शिकन।दिमाग़ में उलझन।मन में भविष्य की चिंता।पीठ पर किताबी बोझ और जुबान से  निकलती हिंगलिशिया गाली होगी।

         *** जलवंशी***

©Anamika jalwanshi बसंती सुबह!
प्रकृति के अनोखे चित्र।
*** बसंती सुबह ***

कभी इतने सुबह उठिए कि खुद को खुद की आवाज सुनाई दे सके। पता है जब आप खुद की आवाज सुनने लगेंगे न तब आपको उस सुबह में आपसे पहले जगे हर उस नन्हें जीव की आवाज सुनाई देने लगेगी जिसको आप देख भी नहीं पाते हैं।

बेली ,चमेली की मनमोहक खुश्बूएं आपको मदहोश करने लगेंगी जिसको आप महंगी महंगी इत्र की बोतलों से भी हासिल न कर पाएंगे।

उठिए और उन फूलों के अधजगे पत्तों से मिलिए।उसकी टहनियों से बाते करिए। उनसे हाल चाल पूछिए जो अभी अभी अंगड़ाई लेकर जगी हैं और
फूलों,पत्तियों,टहनियों के मिले जुले महक को अपने हृदय के कोने कोने में घुलने दीजिए।फिर थोड़ा ध्यान कीजिए।आत्म को परमात्म से जोड़िए।भले आप जुड़ पाएं या न जुड़ पाएं लेकिन आपको प्रयास करना चाहिए। इसमे कुछ हानि भी तो नहीं है। परमात्म मिले न मिले आत्म तो जागृत हो ही जाएगा।

फिर क्या? फिर निकल पड़िए एक लम्बी सफर पर। नाप आइए रात के बारिश में भीगी उन सड़कों को जो आपको सुकून से भरने के लिए आपके कदमों की आहट के इंतजार में है। फिर गिनिए रास्ते के उन  पेड़ों को जिन्होंने रात की आंधी में हवा की थपेड़े सहें और एक दूसरे को सहारा देते देते इतना उलझ गए कि अभी तक सुलझने की कोशिश में उस माली की राह तक रहे हैं जो रात की केलि के बाद बिस्तर से चिपटा खर्राटे मार पड़ोसियों की नींद हराम कर रहा है।

जाइए और उन उलझी पेड़ों की टहनियों को सुलझाइए और उनके प्रकृतिस्थ निश्छल प्रेम के सुपात्र बनिए। फिर कुछ आगे बढ़िए। तेज कदमों से चलिए। हवा की सरसराहट को अपने बदन पर महसूस करिए। तन मन को ताजगी से भरिए। फिर कुछ मुंडी इधर उधर घुमाइए।कुछ चेहरों को कनखियों से ताड़िए।कुछ को देखकर मुँह बिचकाइए और जी में आए तो कुछ को देखकर अगली मोड़ से मुड़ ही जाइए।

फिर उस सड़क के किनारे बने ऊँचे  नीचे  बिल्डिंगों, घरों, दफ्तरों और उन पर चिपके उन पोस्टरों की शिनाख्त कीजिए जिसके मालिक ने अपने नौकर को धमकाकर उन दीवारों पर लगवाया है।यह और बात है कि हर दीवार पर लिखा है " यहां पोस्टर लगाना सख्त मना है।" पर क्या कीजै जैसे उस नौकर ने मालिक के धौंस से उस लिखे को अनदेखा किया है वैसे ही आप भी कर गुजरिए।

फिर उन बिल्डिंगों की ऊंचाई को अपने  दस बारह में पढ़े गणित के फॉर्मूलों से नाप जाइए और अपने भावी घर की कल्पना कर लीजिए। अब उनकी नाक नक्श और साज सज्जा पर आइए। एक एक को अपनी भोरहरी उनीदी अखियों से पतिया लीजिए ।कुछ कमी वमी हो तो वह भी निकाल लीजिए किसे फर्क पड़ता है।हां,लेकिन उसे अपनी दिमागी डायरी के पिछले पन्ने पर एक घेरा बनाकर लिख लीजिए ताकि समय पर बेमेहनत मिल जाए भले उस दिन आपको यह बेमतलब ही क्यों न लगे।

फिर सड़कों का पूँछ पकड़े बढ़ते जाइए। किनारे पर बने गोल घेरे में लगे नन्हें नन्हें पौधों की फुनगियों की कान मरोड़ते जाइए। किसे खबर आप वैज्ञानिक हैं या साहित्यकार ।आप उसकी नब्ज देख रहे हैं या प्यार के भावावेश में उसकी सुंदरता और कोमलता पर मुग्ध हो उसे चूटी काट रहे हैं।

फिर करिए तलाश किसी ऐसे उद्यान की जिसकी जमीन रात की आंधी में झड़े,सूखे ,मुरझाए ,पीले और हरीलेपीले (पीले हरे ) पत्तों से सजी हो और पत्ते बारिश की पानी से सने हो।जमीन थोड़ी भीगी हो थोड़ी सुखी हो और जमीनी महक से गमक रही हो। फिर निकालिए अपना हथेली भर का फोटो खीचन यंत्र और धड़ाधड़ कैद कर लीजिए उन लम्हों को अपने यंत्र की गैलीरियाई दिमाग़ में।

अब नजरें थोड़ा उपर उठाइए और नहाए पेड़ों की पत्तियों पर रुके नन्हें नन्हें बारिश की बूंदों को अपने जिस्मानी गरम होठों से लगाइए और उन पत्तों की तरह हरियरा जाइए। 

फिर वहां की झाड़ियों से थोड़ा बतियाइए ।उनका कुशल मंगल जानिए।फिर उनकी मुंडी पर अपनी गरम हथेली को रगड़ते वहां से खिसक लीजिए।

अब वहां की चबूतरों पर आइए।उनके धूल से सने और बारिश से भींगे बदन को देख मुँह बनाइए।फिर उसे पोछने के लिए इधर उधर ताका  झांकी करिए। कुछ न मिले तो दो चार सूखे पत्ते उठाइए और उन्हीं से अपने बैठने भर की जगह रगड़ मारिए । फिर बैठिए और थोड़ा गीला महसूस कीजिए और थोड़ा किरकिरा भी और खुद को कहिए "इतना तो चलता है कौन सा फैशन शो करने आए हैं जो कोई मेरा पिछवाड़ा निहारेगा।"

अब वहां की चिड़ियों की चहचहाहट को सुनिए और मन में नए विचारों को गुनिए।कुछ अपना धुन जोड़िए और कुछ पत्तों की झरझराहट को लीजिए। फिर नजरों को दौड़ाइए। वहां आते जाते इक्के दुक्के बदनों को निरखिए। एक अधेड़ उम्र की सभ्य महिला को किसी सतसंगी बाबा के गानों को लौडस्पीकर मोड़ पर डाल अपने कमर से कमरा बने कमर को फिर से कमरा से कमर बनाने की नाकाम कोशिशों पर मुश्कि मारिए।

अरे थहरिए ! अभी उठिए मत क्योंकि अब आएंगे शहर के मानित सम्मानित जानित पहचानित पचासा पार सीनियर सिटीजेन्स। आपका क्या है !आप बस वहीं बैठे रहिए सिर झुकाए तिरछी नजरों से उनके योगाभ्यास की आड़ी  टेड़ी आकृतियों को देखते रहिए और सुनते रहिए उनके दूरभाष यंत्र से निकलने वाले गानों की तान को " बेशरम रंग कहां देखा दुनिया वालो ने"

नहीं नहीं अभी भी नहीं उठना है! थोड़ी देर और धैर्य के साथ अपनी जगह पर जमे रहिए क्योंकि अब नंबर है राष्ट्र के नव निर्माताओं की जिन्हें उद्यान में अकेले जाना पाप सा लगता है। अगर गलती से आपकी और उनकी नजरें मिल गई तो वे आपको बेपहचानी नजरों से घूरेंगे और आप उन्हें फिर दोनो इधर उधर नजरें घुमा लेंगे और मन में कहेंगे "होगा कोई अपने को क्या" फिर वे लोग किसी पेड़ की छहियां तरे बैठकर थोड़ी गुफ़्तगू करेंगे । खाएंगे खिलाएंगे।पिएंगे पिलायेंगे।सबकी नजरें बचा चिपका चिपकी करेंगे हालांकि यह उनका भ्रम है क्योंकि यह जनता है सब जानती है।फिर आपको क्या तब तक तो आप वहां से निकल चुके होंगे और निकलते समय आप विद्यार्थियों के उस झुण्ड से तकराएंगे जिनके चेहरों पर शिकन।दिमाग़ में उलझन।मन में भविष्य की चिंता।पीठ पर किताबी बोझ और जुबान से  निकलती हिंगलिशिया गाली होगी।

         *** जलवंशी***

©Anamika jalwanshi बसंती सुबह!
प्रकृति के अनोखे चित्र।