‘बस इतनी हि कहानी थी मेरी.. एक लडकी थी जो बगल मे बैठी थी, एक कुछ डॉक्टर जो अभी भी इस उम्मीद मे थे कि शायद ये मुर्दा फिर जाग पडे.. एक दोस्त था, जो पागल था.. एक और लडकी थी जिसने अपना सब कुछ हार दिया था मुझपे.. मेरी मा थी, बाप था, बनारस कि गलिया थी, और ये एक हमारा शरीर था जो हमे छोड चुका था. ये मेरा सीना जिसमे अभीभी आग बाकी थी.. हम उठ सकते थे, पर किसके लिये? म चीख सकते थे, पर किसके लिये? मेरा प्यार झोया, बनारस कि गलिया, बिंदिया, मुरारी, सब मुझसे छूट रहा था. मेरे सीने कि आग या तो मुझे जिंदा कर सकती थी या मुझे मार सकती थी. पर साला अब उठे कौन? कौन फिरसे मेहनत करे दिल लगाने को.. दिल तुडवाने को.. अबे कोई तो आवाज दे के रोक लो! ये जो लडकी मुर्दा सी आखे लिये बैठी ही बगल मे, आज भी हा बोल दे तो महादेव कि कसम वापस आ जाए! पर नही, अब साला मूड नही. आखे मुंद लेने मे हि सुख है, सो जाने मे हि भलाई है. पर उठेंगे किसी दिन.. उसी गंगा किनारे डमरू बाजाने को.. उन्ही बनारस के गलियो मे दौड जाने को, किसी झोया के इश्क मे फिर से पड जाने को..!’ Ranjhana