उम्र भर इक मसीहा की इंतजार करते रहे जो आके हमारी दुख भरी जिंदगी बदल सके। रब ही था वो जो आया था इनसान के वेश में आम आदमी जान हम ही उसे पहचान न सके। दिल खोल के लुटा रहा था वो दिल की दौलत कमनसीबी मेरी कि हम ही दिल खोल न सके। औंधे बर्तन में पड़ती कैसे रहमतों की बारिश उसके समझाने के बावजूद भी सीधा कर न सके। सिर्फ इनसान को मय्यसर है खुदा हो जाना लाहनत है उस पर जो इसका फ़ायदा उठा न सके। उम्र भर इक मसीहा की इंतजार करते रहे जो आके हमारी दुख भरी जिंदगी बदल सके। बी डी शर्मा चण्डीगढ़ 19.07.2020 मसीहा