चंद रोज ही तो जीना है पर माथे पे सिकुड़न, बदन पे पसीना है, हर कायदे में पाबंदी, जलता सीना है, ये कैसे दस्तूर, कैसा जीना है.. चाहत जो कभी थी, खुद को सुनने की, अब बंधा है हाथी कील से, बात है फटे उसूलों की, देखता है चांद की तरफ , पर मिटती लकीर का फकीर बनना है,