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था कभी कोई सपना, रातों को जगता था सुलाकर अपने चां

था कभी कोई सपना, रातों को जगता था

सुलाकर अपने चांद से जहां को छोड़ अकेला,

 अकेलेपन में ओस पड़ा वो  मन में ही सागर बन जाता था,
 
शांत निश्चल लहरें सोच-सोच तड़प उठती,
 
किसी को केवल मात्र अपनी ही सोच में महसूस करने के लिए


उसने  कभी नहीं  सोचा,  

एक तक निहारती काली सी अधुरी रातों को जगाकर रखने वाला सपना, 

सिर्फ अकेले  में  बात कर झुठी जिंदगी जी रहा था

रोशनी से दुर,वो  पराई रोशनी से क्या पता

उसी को, सबसे दुर कर, खुद से भी अलग रहकर   सच्चाई को

धुंधला कर रहा था...
 Meena
  #p
था कभी कोई सपना, रातों को जगता था

सुलाकर अपने चांद से जहां को छोड़ अकेला,

 अकेलेपन में ओस पड़ा वो  मन में ही सागर बन जाता था,
 
शांत निश्चल लहरें सोच-सोच तड़प उठती,
 
किसी को केवल मात्र अपनी ही सोच में महसूस करने के लिए


उसने  कभी नहीं  सोचा,  

एक तक निहारती काली सी अधुरी रातों को जगाकर रखने वाला सपना, 

सिर्फ अकेले  में  बात कर झुठी जिंदगी जी रहा था

रोशनी से दुर,वो  पराई रोशनी से क्या पता

उसी को, सबसे दुर कर, खुद से भी अलग रहकर   सच्चाई को

धुंधला कर रहा था...
 Meena
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Meena

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