जब मैं छोटी थी तो बड़ा मन करता था माँ की साड़ी पहनू बाबा के जुतो में पैर डालूँ दादी की तरह आरती गाना दादा की तरह चश्मा लगाऊँ मगर आज समझ पायी की ये सब आसान नहीं है ना जाने कितनी बातें लपेटती थी माँ ने साड़ी की सिल्वटो में ना जाने कितने छेद होते थे जिंदगी के बाबा के जुतो में ना जाने कितनी कामनाएँ होती थी दादी की आरती में ना जाने कितने फैसले होते थे दादा के चश्मे में। # ना जाने।