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आरती, स्त्रोत्र की महिमा आरती को आरात्रिक , आरार्त

आरती, स्त्रोत्र की महिमा
आरती को आरात्रिक , आरार्तिक अथवा नीराजन भी कहते हैं। 
पूजा के अंत में आरती की जाती है। 
जो त्रुटि पूजन में रह जाती है वह आरती में पूरी हो जाती है। 
स्कन्द पुराण में कहा गया है-
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते निराजने शिवे।।
अर्थात - पूजन मंत्रहीन तथा क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) 
कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है। 
आरती करने का ही नहीं, देखने का भी बड़ा पूण्य फल प्राप्त होता है। 
हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है- 
नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम।।
अर्थात - जो भी देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती देखता है,
 वह सातों जन्म में ब्राह्मण होकर अंत में परम् पद को प्राप्त होता है। 
श्री विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है- 
धूपं चरात्रिकं पश्येत काराभ्यां च प्रवन्देत।
कुलकोटीं समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।
अर्थात - जो धुप और आरती को देखता है
 और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है 
और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। 
आरती में पहले मूल मंत्र 
(जिस देवता का, जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र)
 के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये 
और ढोल, नगाड़े, शख्ङ, घड़ियाल आदि महावाद्यो के तथा जय-जयकार के शब्दों के साथ 
शुभ पात्र में घृत से या कर्पूर से विषम संख्या में अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिए-
ततश्च मुलमन्त्रेण दत्त्वा पुष्पाञ्जलित्रयम्।
महानिराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।।
प्रज्वलेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्दिकम्।।
अर्थात - साधारणतः पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे 'पञ्चप Radhe Radhe 
Jai shri Krishna
आरती, स्त्रोत्र की महिमा
आरती को आरात्रिक , आरार्तिक अथवा नीराजन भी कहते हैं। 
पूजा के अंत में आरती की जाती है। 
जो त्रुटि पूजन में रह जाती है वह आरती में पूरी हो जाती है। 
स्कन्द पुराण में कहा गया है-
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते निराजने शिवे।।
अर्थात - पूजन मंत्रहीन तथा क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) 
कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है। 
आरती करने का ही नहीं, देखने का भी बड़ा पूण्य फल प्राप्त होता है। 
हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है- 
नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम।।
अर्थात - जो भी देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती देखता है,
 वह सातों जन्म में ब्राह्मण होकर अंत में परम् पद को प्राप्त होता है। 
श्री विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है- 
धूपं चरात्रिकं पश्येत काराभ्यां च प्रवन्देत।
कुलकोटीं समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।
अर्थात - जो धुप और आरती को देखता है
 और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है 
और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। 
आरती में पहले मूल मंत्र 
(जिस देवता का, जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र)
 के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये 
और ढोल, नगाड़े, शख्ङ, घड़ियाल आदि महावाद्यो के तथा जय-जयकार के शब्दों के साथ 
शुभ पात्र में घृत से या कर्पूर से विषम संख्या में अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिए-
ततश्च मुलमन्त्रेण दत्त्वा पुष्पाञ्जलित्रयम्।
महानिराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।।
प्रज्वलेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्दिकम्।।
अर्थात - साधारणतः पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे 'पञ्चप Radhe Radhe 
Jai shri Krishna