पहनी आंसूँ की माला बना कर, पीडा रह गयी बस शरमाकर, तन पर कुरता एक फ़टेला, मन में आहों का मेला, रौंदता पदों के घावों को शमित करता तप्त राहों को करता सडकों पर रक्त वमन, मैं चला छोड खिलता चमन, मारे भूख निकलना पडा सडक पर, देश की आंखों में रडक कर, इसी मारे लोचन तने हैं मुझपर, यही मेरा पारितोष है! सब मेरा ही दोष है, सिंहासन निर्दोष है! -विकास भारद्वाज पहनी आंसूँ की माला बना कर, पीडा रह गयी बस शरमाकर, तन पर कुरता एक फ़टेला, मन में आहों का मेला, रौंदता पदों के घावों को शमित करता तप्त राहों को करता सडकों पर रक्त वमन, मैं चला छोड खिलता चमन,