जि़दगी मायूसियों मे गुमनाम हो गई, तंहाईयों के अंधेरों मे वीरान हो गई। एकाकी की दरों दिवारों के उस पार से, आवाजें-आहटें अक्सर आती तो है। पर मेरे स्याह अंधेरों भरी इन, बंद दरों -दिवारों से ही लौट जाती है। शायद हो सकता है मुझे ढ़ूंढ़ते हुए, कुछ खुशियाँ किस्मत की आती हो। मायूसियों-तंहाईयों के दरवाजे से, अक्सर वो लौट जाती हों। खुशियां तो बस सपना बन गई, तंहाईयां अब जिंदगी बन गई हैं, आसपास खामोशियां का पहरा है, बस्ती अंधेरों की बस गई है। ©।।दिल की कलम से।। तंहाईयां जिंदगी मेरी