#OpenPoetry धड़कनों जैसे ही कुछ मंद से पड़ते हुए बोझिल साँसों सा मेरे जिस्म के चलते हुए वो जो ज़ज़्बातों से काफ़ी हद तक लबरेज़ थे अल्फ़ाज़ों से कहीँ ज्यादा एहसासों के जिसमे तेज़ थे काश के जलाने से पहले एक दफ़ा पढ़ लेते गर दूरियाँ थी पसँद तुम्हे तो इत्तला पहले से हि कर देते जिन कागज़ों को तुमने आखिर ख़त समझा वो महज़ ख़त हि तो नहीं थे वो मुहब्बत में ज़िन्दगी भर की कमाई थी जिसे सहजने में खर्च की हमने उम्मीदों की पाई-पाई थी उसके जलने से जले थे कुछ ख़्वाब मेरी आँखों के दफ़न हो गयी थी कुछ सिसकियाँ कुछ चीखें मेरी आहों के उसके जलने में अरमानों का जलन था जिस्म सर्द था मगर जलता हुआ सा मन था - क्रांति #आखिरी #ख़त