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मुलायम हथेलियों के छाले, चोट खाई कोमल एड़ीयाँ, फ

मुलायम हथेलियों के छाले,
 चोट खाई कोमल एड़ीयाँ,
 फटे हुए नाजुक होंठ,
 केश सूखे घास का मैदान,
 दूधिया सफेद बर्फ सी आंखें,
 मरुस्थल सा मासूम चेहरा,
 के बावजूद प्रथम रश्मि सी मुस्कान,
 अभिनय नहीं,संकेत हैं,
 यथार्थ और जिजीविषा के समन्वय की,
 मटमैले, मलिन चिथड़ों में सवरा,
 अभावों से निर्मित पतली अस्थियों का ढांचा,
 कबाड़ का भार लादे महज सात साल की उम्र में,
 उम्र से आगे और बचपन से दूर,
 निकल पड़ा है, टुकड़ों की तलाश में,
 हालात और कुत्ते दोनों से लड़ने,
 पर मायूसी उसे छू ले, उसमें इतना साहस कहां,
 नन्हे नन्हे कदमों में जैसे पहिए लगे हों
 न थकते हैं, न रुकते है,
 और प्यारी प्यारी आंखें, इमारतों की ऊंचाई को आंकते हुए,
 न दुखते हैं न झुकते हैं,
 पर जाड़े और बरसात के दिनों, गुदड़ी पर लेटे हुए,
 बढ़ जाती है उसकी धड़कन,
 ठिठुर जाती है उसकी अस्थियां,
 कांपती है उसकी मांसपेशियां,
 और लड़खड़ा जाते हैं उसके शब्द,
 कभी ज्वर से पीड़ित, तो कभी क्षुधा से व्याकुल,
 अस्थिर निर्बल और बीमार जान पड़ती है उसकी काया,
 रूठना भी उसे कभी आया नहीं, जिद्द से उसने कभी कुछ पाया नहीं,
 हालात ने सिखाया जीवन जीने की कला, इसलिए संघर्ष से कभी वह घबराया नहीं
 कचरे से कल ही उसे एक कलम मिली थी,
 उसकी खुशी का तनिक भी ठिकाना न था
 नन्हें-नन्हें पलकों में सपने को संजोए,
 धरती पर लेट आसमा की गहराई में खोए
 साहेब लोगों की जेब में इसी कलम को तो देखा था उसने
 सड़क पर चलती गाड़ियों के भीतर
 आज स्याह रात में उसे जुगनू की रोशनी मिली है
 कल क्या पता, प्रभात का अर्क उसका हो

©Priya Kumari Niharika मुलायम हथेलियों के छाले,
 चोट खाई कोमल एड़ीयाँ,
 फटे हुए नाजुक होंठ,
 केश सूखे घास का मैदान,
 दूधिया सफेद बर्फ सी आंखें,
 मरुस्थल सा मासूम चेहरा,
 के बावजूद प्रथम रश्मि सी मुस्कान,
 अभिनय नहीं,संकेत हैं,
मुलायम हथेलियों के छाले,
 चोट खाई कोमल एड़ीयाँ,
 फटे हुए नाजुक होंठ,
 केश सूखे घास का मैदान,
 दूधिया सफेद बर्फ सी आंखें,
 मरुस्थल सा मासूम चेहरा,
 के बावजूद प्रथम रश्मि सी मुस्कान,
 अभिनय नहीं,संकेत हैं,
 यथार्थ और जिजीविषा के समन्वय की,
 मटमैले, मलिन चिथड़ों में सवरा,
 अभावों से निर्मित पतली अस्थियों का ढांचा,
 कबाड़ का भार लादे महज सात साल की उम्र में,
 उम्र से आगे और बचपन से दूर,
 निकल पड़ा है, टुकड़ों की तलाश में,
 हालात और कुत्ते दोनों से लड़ने,
 पर मायूसी उसे छू ले, उसमें इतना साहस कहां,
 नन्हे नन्हे कदमों में जैसे पहिए लगे हों
 न थकते हैं, न रुकते है,
 और प्यारी प्यारी आंखें, इमारतों की ऊंचाई को आंकते हुए,
 न दुखते हैं न झुकते हैं,
 पर जाड़े और बरसात के दिनों, गुदड़ी पर लेटे हुए,
 बढ़ जाती है उसकी धड़कन,
 ठिठुर जाती है उसकी अस्थियां,
 कांपती है उसकी मांसपेशियां,
 और लड़खड़ा जाते हैं उसके शब्द,
 कभी ज्वर से पीड़ित, तो कभी क्षुधा से व्याकुल,
 अस्थिर निर्बल और बीमार जान पड़ती है उसकी काया,
 रूठना भी उसे कभी आया नहीं, जिद्द से उसने कभी कुछ पाया नहीं,
 हालात ने सिखाया जीवन जीने की कला, इसलिए संघर्ष से कभी वह घबराया नहीं
 कचरे से कल ही उसे एक कलम मिली थी,
 उसकी खुशी का तनिक भी ठिकाना न था
 नन्हें-नन्हें पलकों में सपने को संजोए,
 धरती पर लेट आसमा की गहराई में खोए
 साहेब लोगों की जेब में इसी कलम को तो देखा था उसने
 सड़क पर चलती गाड़ियों के भीतर
 आज स्याह रात में उसे जुगनू की रोशनी मिली है
 कल क्या पता, प्रभात का अर्क उसका हो

©Priya Kumari Niharika मुलायम हथेलियों के छाले,
 चोट खाई कोमल एड़ीयाँ,
 फटे हुए नाजुक होंठ,
 केश सूखे घास का मैदान,
 दूधिया सफेद बर्फ सी आंखें,
 मरुस्थल सा मासूम चेहरा,
 के बावजूद प्रथम रश्मि सी मुस्कान,
 अभिनय नहीं,संकेत हैं,