कोई नहीं समझ सकता, मेरे अंतर्मन, जीवन को, वो नटखट बचपन, जब झांकता था मेरे से, बाहर सड़क की ओर, और पुकारता था कभी आइस क्रीम, तो कभी आवाज देता था दोस्तों को, यौवन कि अवस्था में काम आया हूँ, महबूब को इक पल देखने का, चिट्ठियां आदान प्रदान करने का, उसकी राह ताकने का, बुढ़ापे में, झांक रही है बस, महबूब कि यादें, बीता हुआ बचपन, और जंग लग कर खो रही, अपना जीवन !! पेश है 'खिड़की' पर एक कविता:: खिड़की: –--------- कोई नहीं समझता, मेरे अंतर्मन को, वो नटखट बचपन, जब झांकता था मेरे से,