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वो आई तो खुद आई, और लाई नहीं दहेज, समाज में ताव रख

वो आई तो खुद आई, और लाई नहीं दहेज,
समाज में ताव रखने को स्वागत किया खूब।
कल-परसों में लगी जाने को दफ्तर हो तैयार,
देहरी पर रखे कदम, कोई पूछे उसकी पगार,
ठिठक कर खड़ी दो पल, थी झुकी-झुकी नजर,
'उबर' आई, देर हो रही, कह निकल पड़ी सफर,
पूरे दिन बधाई सत्र के दौरान सोचे कई जवाब,

कोशिश नाकाम, पहुंचते ससुराल हुए खड़े कान,
बचकर निकली, सहमी थोड़ी, ज्यादा विचलित,
कमरे में जाकर पूछा, कहो क्यों पूछ रहे यह?
बिन सोचे, नि:संकोच उत्तर,"ये तुम्हारे परिवार,
हक है इतना तुम पर हम सब का, समझ लो।"
द्वंद मन में, नि:शब्द, आंखों और जबां को रोके,
"बाबा ने तो कभी ना पूछा क्यों ऐसा कोई सवाल!?" दहेज का नवरुप
......................
वो आई तो खुद आई, और लाई नहीं दहेज,
समाज में ताव रखने को स्वागत किया खूब।
कल-परसों में लगी जाने को दफ्तर हो तैयार,
देहरी पर रखे कदम, कोई पूछे उसकी पगार,
ठिठक कर खड़ी दो पल, थी झुकी-झुकी नजर,
'उबर' आई, देर हो रही, कह निकल पड़ी सफर,
वो आई तो खुद आई, और लाई नहीं दहेज,
समाज में ताव रखने को स्वागत किया खूब।
कल-परसों में लगी जाने को दफ्तर हो तैयार,
देहरी पर रखे कदम, कोई पूछे उसकी पगार,
ठिठक कर खड़ी दो पल, थी झुकी-झुकी नजर,
'उबर' आई, देर हो रही, कह निकल पड़ी सफर,
पूरे दिन बधाई सत्र के दौरान सोचे कई जवाब,

कोशिश नाकाम, पहुंचते ससुराल हुए खड़े कान,
बचकर निकली, सहमी थोड़ी, ज्यादा विचलित,
कमरे में जाकर पूछा, कहो क्यों पूछ रहे यह?
बिन सोचे, नि:संकोच उत्तर,"ये तुम्हारे परिवार,
हक है इतना तुम पर हम सब का, समझ लो।"
द्वंद मन में, नि:शब्द, आंखों और जबां को रोके,
"बाबा ने तो कभी ना पूछा क्यों ऐसा कोई सवाल!?" दहेज का नवरुप
......................
वो आई तो खुद आई, और लाई नहीं दहेज,
समाज में ताव रखने को स्वागत किया खूब।
कल-परसों में लगी जाने को दफ्तर हो तैयार,
देहरी पर रखे कदम, कोई पूछे उसकी पगार,
ठिठक कर खड़ी दो पल, थी झुकी-झुकी नजर,
'उबर' आई, देर हो रही, कह निकल पड़ी सफर,
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