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कहीं पर भटक सा गया हूँ जानता हूँ, पर कहां पता नहीं

कहीं पर भटक सा गया हूँ
जानता हूँ, पर कहां पता नहीं,
खुद ही कसूरवार हूँ इसके लिए
किसी और की कोई खता नहीं।
कदम उठाये जो भी मैंने
बेहोशी थी या  मेरी नादानी।
मै अकेला भी नहीं हूँ शायद
बहुतों की हैं ऐसी ही कहानी।
भीड़ में शामिल हुआ कई बार
मै भी भेड़ बनकर,
ठहर भी गया हूँ कई बार
पतझड़ का पेड़ बनकर।
पर जानता नहीं हूँ
कहाँ हैं मंजिल, कहाँ हैं पड़ाव
दिशाहीन क्यों हैं जिंदगी
क्यों आ गया हैं ठहराव।

©Kamlesh Kandpal
  #bhatkav