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बैठकर सामने शीशे के जब तुम सोलह सिंगार करती हो आ

 बैठकर सामने शीशे के जब तुम सोलह सिंगार करती हो 
आंखों में भर्ती हो जब तुम कजरे की धार तुम मेरे दिल पर वार करती हो
जब खोल लेती हो तुम अपनी बंधी हुई जुल्फों को
तो खुली जुल्फों के आगोश में हमें तुम कैद करती हो।
जब भर्ती हो तुम अपने अधरों को लोहित अंगार से,
इंसानों की बात ही क्या तुम तो देवों का भी मन हरती हो।
लगा के माथे पर बिंदी जब तुम देखती हो आईना,
तब लगती हो ऐसे जैसे अपनी बिंदी से  कामदेव को भी अपने वश में करती हो।
फिर जब पहनती हो तुम साड़ी अलग-अलग रंग की,
तो ऐसा लगता है मानो  जैसे स्वर्ग की सब अप्सराएं  भी तुम्हारे सांवले से रंग  के आगे पानी भर्ती हो।

जब चलती हो तुम सब सोलह श्रृंगार करके पहन पैरों में पायल,
तब पायल की आवाज़ से लगता हैं जैसे किसी मुसाफिर से शायर की सब शायरियां बस तुमसे ही प्रेम करती हों।

©Musafir ke ehsaas
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