*कुछ प्रीत जगानी थी मुझको* *कुछ प्रीत जगानी थी मुझको।* *कुछ रीत निभानी थी मुझको।।* *कुछ ऐसे गीत सुनाने थे।* *जो महफिल को भी भाने थे।।* *कुछ सूरज की अरुणाई के।* *कुछ तरुणों की तरुणाई के।।* *कुछ देश धरा की माटी के।* *कुछ भारत की परिपाटी के।।* *कुछ ऐसे नगमें गाने थे।* *जो महफिल को भी भाने थे।।* *कुछ अपने वीर जवानों के।* *कुछ धरतीपुत्र किसानों के।।* *कुछ आतंकी परिभाषा के।* *कुछ टूट गई उस आशा के।।* *कुछ ऐसे सधे निशाने थे।* *जो महफिल को भी भाने थे।।* *कुछ बेटी खोई खोई सी।* *कुछ ममता रोई रोई सी।।* *कुछ दर्द दिखा था बेटों में।* *कुछ दंभ भरे आखेटों में।।* *कुछ ऐसे ताने-बाने थे।* *जो महफिल को भी भाने थे।।* *कुछ सत्ता की मजबूरी थी।* *कुछ जनता से भी दूरी थी।।* *कुछ भूले भटके नेता को।* *कुछ प्राणी और प्रणेता को।।* *कुछ ऐसे फर्ज निभाने थे।* *जो महफिल को भी भाने थे।।* *कुछ स्याही बिखरी जाती थी।* *कुछ कलम भी निखरी जाती थी।।* *कुछ गीत गजल की लज्जा थी।* *कुछ महफिल की भी सज्जा थी।।* *कुछ लिखने वही तराने थे।* *जो महफिल को भी भाने थे।