माना कि बहारें ख़िज़ाँ को, दी सज़ा लगती हैं बिना महबूब के तो बहारें, भी सज़ा लगती हैं लाज़मी है ख़िज़ाँ वरना, बहारें भी बदमज़ा लगती हैं नमक इश्क़ का चखाना भी, हिज़्र की अदा लगती है वक़्त पर न की गई नमाज़ की, भी क़ज़ा लगती है यूँ कहें कि इश्क़ में दुश्वारी, भी रब की रज़ा लगती है विश्वास की डोर से बाँधा, प्रेम जीने की वज़ह लगती है मुश्किल वक़्त से जूझती हुई मुझमें जैसेअज़ा लगती है तेरी बातें कभी-कभी मुझे, वा'दा-ए-फ़र्दा लगती हैं सुनहरे भविष्य पर चढ़ जाएगी ऐसी गर्दा लगती हैं ♥️ Challenge-627 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें :) ♥️ विषय को अपने शब्दों से सजाइए। ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें।