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रिश्तों का महापर्व है ये एक अजीब सी डोर खींचती है

रिश्तों का महापर्व है ये

एक अजीब सी डोर
खींचती है अपनों को
जब घर के आंगन में
आस्था के फूल खिलते हैं।

चार पैसे कमाने गया शहर
सब छोड़के आ जाता है
भूल के दुख, हजारों दर्द
भक्ति की धुन में रम जाता है।

चार दिनों का मेला यह
घर-घर में सजता है
जहां खाने को रोटी नहीं
वहां भी घी के दीये जलता है।

छठ पूजा की महिमा
अपरम्पार है सदियों से
आंखों में अपनापन की लौ
जल रही है दौड़ियों से।

प्यार है ये, पर्व है ये
रिश्तों का महापर्व है ये
खत्म न हो इसकी महक कभी
मिट्टी का अटूट कर्ज है ये। #छठ, #छठपूजा, #आस्थाकापर्व, #अपनापन, #महापर्व, #संजीतमिश्रा
रिश्तों का महापर्व है ये

एक अजीब सी डोर
खींचती है अपनों को
जब घर के आंगन में
आस्था के फूल खिलते हैं।

चार पैसे कमाने गया शहर
सब छोड़के आ जाता है
भूल के दुख, हजारों दर्द
भक्ति की धुन में रम जाता है।

चार दिनों का मेला यह
घर-घर में सजता है
जहां खाने को रोटी नहीं
वहां भी घी के दीये जलता है।

छठ पूजा की महिमा
अपरम्पार है सदियों से
आंखों में अपनापन की लौ
जल रही है दौड़ियों से।

प्यार है ये, पर्व है ये
रिश्तों का महापर्व है ये
खत्म न हो इसकी महक कभी
मिट्टी का अटूट कर्ज है ये। #छठ, #छठपूजा, #आस्थाकापर्व, #अपनापन, #महापर्व, #संजीतमिश्रा
sanjeetmishra5373

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