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वज़ह कभी कोई तो कभी कोई रही बेवज़ह भी कई रात नींद आई

वज़ह कभी कोई तो कभी कोई रही
बेवज़ह भी कई रात नींद आई नहीं
कभी चाँद को सामने कभी सिरहाने रखा
कभी सुबह पे धुंध ग़फ़लतीं वो छाई रही
दिल से ये दर्द का वास्ता ही है मर्ज़ इसका
कभी अपनी तो कभी अपनों की परछाईं रही
इस अंदेशे से कि वो भी जग रहे होंगे
गिरती पलकों ने भी रात आँखों से निभाई ही नहीं
सब ख़ामोश गर हो जाता बन्द आँखों में
रहती न ख़लिश शबे दुनियाँ की रुबाई में कोई
तू ढूँढता है किसको तारों में नज़र
मौत है तेरी-मेरी जाने वाले की बेइनाई नहीं
चाँद! पलकों पे हाथ तू रख दे ज़रा
जाने कब से हमें रातों को नींद आई नहीं
इस अंदेशे से कि वो भी जग रहे होंगे
बेगरज़ रात ये हमको भी सुहाई ही नहीं




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वज़ह कभी कोई तो कभी कोई रही
बेवज़ह भी कई रात नींद आई नहीं
कभी चाँद को सामने कभी सिरहाने रखा
कभी सुबह पे धुंध ग़फ़लतीं वो छाई रही
दिल से ये दर्द का वास्ता ही है मर्ज़ इसका
कभी अपनी तो कभी अपनों की परछाईं रही
इस अंदेशे से कि वो भी जग रहे होंगे
गिरती पलकों ने भी रात आँखों से निभाई ही नहीं
सब ख़ामोश गर हो जाता बन्द आँखों में
रहती न ख़लिश शबे दुनियाँ की रुबाई में कोई
तू ढूँढता है किसको तारों में नज़र
मौत है तेरी-मेरी जाने वाले की बेइनाई नहीं
चाँद! पलकों पे हाथ तू रख दे ज़रा
जाने कब से हमें रातों को नींद आई नहीं
इस अंदेशे से कि वो भी जग रहे होंगे
बेगरज़ रात ये हमको भी सुहाई ही नहीं




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