"प्रकृति और समाजिक पीड़ा : पुनर्सृष्टि निर्माण हेतु प्रकृति से आह्वान" ( अनुशीर्षक में देखें) तुम कौन हो...? अज्ञात हो, पर नेह की... बरसात हो। व्यवहार तेरा सौम्य है, अनभिज्ञ सा संवाद हो। तृण तुल्य भी परिचय नहीं, पर देख लो विस्तार हो। संजालिका के पट तले, तुम त्यज्ज्नी अधिकार हो।