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( Repost #पंछी ) व्यक्ति स्वार्थी भी हो गया और भो

( Repost #पंछी )

व्यक्ति स्वार्थी भी हो गया और भोगी भी।
न बच्चों का दर्द, न मां-बाप का।
न ही संबंध बच पा रहा बाप-बेटी का।
न सरकार को शर्म, न समाज को।
शिक्षा ने सब को मानवता से 
शून्य कर दिया है।
शरीर तो पशु देह है।
जैविक संतानें पैदा हो रही हैं।
जिस योनि से जीव आता है,
वैसे ही इस देह में भी जीता है।
इंसान कौन बनाए इसे? 🍫🙏💓#पंछी #पाठक #कन्या #सामाजिक🙏💓🤓🍧🍫🍫
#संस्कार #शिक्षा🙏💓🍫🍂🐦
किसी समय गरीब घरों में बेटियां खर्च की दृष्टि से अभिशाप मानी जाती थीं। विशेषकर गांवों में। आज ठीक उल्टा हो रहा है। गांव से अधिक शहरी लोगों को, निर्धन से ज्यादा अमीरों को ‘पुत्र रत्न’ चाहिए। आज शहरी और समृद्ध व्यक्ति समर्थ भी है। मनचाही संतान पैदा कर लेता है। तकनीक उसकी पहुंच में है। ‘बेटी बचाओ’ का नारा कम से कम गरीबों में तो, जिनके लिए यह अभियान चलाया गया था, फेल हो गया। अधिकांश सरकारी अभियान विरुद्ध दिशा में सफल अधिक होते हैं। परिवार नियोजन भी समृद्ध परिवारों में ही अधिक सफल रहा। गरीबों की संख्या बढ़ती गई। आज उन्हीं समृद्ध, शिक्षित परिवारों में बेटियां कम हो रही हैं।

स्त्री-पुरुष का अनुपात तेजी से बदल रहा है। शहरों में गांवों से ज्यादा संख्या घट रही है स्त्रियों की। पिछले सात-आठ सालों में अनुपात एक हजार पुरुषों के मुकाबले नौ सौ से कम रह गया है। क्या यह आर्थिक दृष्टिकोण का ही परिणाम है? इसका उत्तर इस बात में ढूंढना चाहिए कि देश में महिलाओं का अनुपात अतिशिक्षित एवं अति समृद्ध राज्यों-दिल्ली, केरल, तेलंगाना में सबसे कम है।

समय के साथ आबादी के नियंत्रण का प्रभाव भी दिखाई देगा। आज प्रति परिवार संतान का औसत लगभग दो रह गया है। लोग प्रसन्न तो हैं कि संतान का पालन-पोषण अब ठीक से होने लगा है। और यह भी सच है कि लड़कियों के मां-बाप दु:खी रहने लग गए। आशा की किरण किधर?
( Repost #पंछी )

व्यक्ति स्वार्थी भी हो गया और भोगी भी।
न बच्चों का दर्द, न मां-बाप का।
न ही संबंध बच पा रहा बाप-बेटी का।
न सरकार को शर्म, न समाज को।
शिक्षा ने सब को मानवता से 
शून्य कर दिया है।
शरीर तो पशु देह है।
जैविक संतानें पैदा हो रही हैं।
जिस योनि से जीव आता है,
वैसे ही इस देह में भी जीता है।
इंसान कौन बनाए इसे? 🍫🙏💓#पंछी #पाठक #कन्या #सामाजिक🙏💓🤓🍧🍫🍫
#संस्कार #शिक्षा🙏💓🍫🍂🐦
किसी समय गरीब घरों में बेटियां खर्च की दृष्टि से अभिशाप मानी जाती थीं। विशेषकर गांवों में। आज ठीक उल्टा हो रहा है। गांव से अधिक शहरी लोगों को, निर्धन से ज्यादा अमीरों को ‘पुत्र रत्न’ चाहिए। आज शहरी और समृद्ध व्यक्ति समर्थ भी है। मनचाही संतान पैदा कर लेता है। तकनीक उसकी पहुंच में है। ‘बेटी बचाओ’ का नारा कम से कम गरीबों में तो, जिनके लिए यह अभियान चलाया गया था, फेल हो गया। अधिकांश सरकारी अभियान विरुद्ध दिशा में सफल अधिक होते हैं। परिवार नियोजन भी समृद्ध परिवारों में ही अधिक सफल रहा। गरीबों की संख्या बढ़ती गई। आज उन्हीं समृद्ध, शिक्षित परिवारों में बेटियां कम हो रही हैं।

स्त्री-पुरुष का अनुपात तेजी से बदल रहा है। शहरों में गांवों से ज्यादा संख्या घट रही है स्त्रियों की। पिछले सात-आठ सालों में अनुपात एक हजार पुरुषों के मुकाबले नौ सौ से कम रह गया है। क्या यह आर्थिक दृष्टिकोण का ही परिणाम है? इसका उत्तर इस बात में ढूंढना चाहिए कि देश में महिलाओं का अनुपात अतिशिक्षित एवं अति समृद्ध राज्यों-दिल्ली, केरल, तेलंगाना में सबसे कम है।

समय के साथ आबादी के नियंत्रण का प्रभाव भी दिखाई देगा। आज प्रति परिवार संतान का औसत लगभग दो रह गया है। लोग प्रसन्न तो हैं कि संतान का पालन-पोषण अब ठीक से होने लगा है। और यह भी सच है कि लड़कियों के मां-बाप दु:खी रहने लग गए। आशा की किरण किधर?