#OpenPoetry ना दीवाली होती, और ना पठाखे बजते ना ईद की अलामत, ना बकरे शहीद होते .......काश कोई धर्म ना होता .......काश कोई मजहब ना होता ना अर्ध देते , ना स्नान होता ना मुर्दे बहाए जाते, ना विसर्जन होता जब भी प्यास लगती , नदिओं का पानी पीते पेड़ों की छाव होती , नदिओं का गर्जन होता ना भगवानों की लीला होती, ना अवतारों का नाटक होता ना देशों की सीमा होती , ना दिलों का फाटक होता .......काश कोई धर्म ना होता .......काश कोई मजहब ना होता ना दीवाली होती, और ना पठाखे बजते ना ईद की अलामत, ना बकरे शहीद होते .......काश कोई धर्म ना होता .......काश कोई मजहब ना होता