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भटकते रहे अनजानी राह पर, भूल कर धूप और छाँव..! म

 भटकते रहे अनजानी राह पर,
भूल कर धूप और छाँव..!

मिली न मंजिल अभी तलक,
चले हैं घिसते पाँव..!

छल कर जल कर हमसे,
अपनों ने रिश्तों में चले हैं दाँव..!

रिस्ते दिल की व्यथा को जाने कौन,
डूब रही उम्मीदों की नाँव..!

निगल गई चकाचौंध शहरों की,
जब पहुँचे अपने गाँव..!

कोयल सी मधुरं वाणी भूले,
कौवे सी रखते काँव-काँव..!

©SHIVA KANT
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