रात की खामोशिया हैं आवाज़ कुछ सुनाती दरख़्त की भी सरसराहट बात कुछ बताती यमुना की भी छलछलाहट दर्द क्या छुपा रही प्यार में या वासना में कोई जिंदगी ना जी सकी आज ओ मुमताज़ क्यूँ प्रेम की कहानी हैं उसकी जिंदा क़ब्र क्यूँ प्रेम की निशानी हैं मुझे उसकी सिसकियां ज़्यादती बता रहीं पर बता रही इतिहास इसे प्रेम की सिसकारी हैं जो समझ पाई ना ख़ुद को,ओ मुमताज़ क्या जाने मुहब्बत एक़ कली जो उम्रभर पिसती रही बनकर रियासत गर समझ उसको जो होता,दफ़्न ना होती कली सी इस इमारत से उम्रभर करती रहती ओ सियासत हाय रे मुमताज़ तू समझ ना पाई हवस मर्द की बादशाह की प्यार में बन गयी क्यूँ बूत सी फ़ना होकर आज भी तू चैन से सोई हुई हो बादशाह बेचैन सा फ़िरता है देखो आज भी ।। ताजमहल