White इक नया रंग दिखता है ज़माने का ज़ख़्म नया ही , मरहम है पुराने का जब तक लड़ती रही कश्ती.तब तक ही है पार उतरने में वजूद ,कहाँ रहता है किनारे का कभी जो पूछो तो कहे कुछ अपनी भी कि.. कितना मुश्किल है खुद को समझाने का साँसों का मोल ,कहाँ मिलता है बाज़ार में क़र्ज़ हर बार रह ही जाता है चुकाने का हर मोड़ पे शुरू फिर एक नया सफ़र है कोशिश रही. फिसलती रेत को हथेली में बचाने का हर मौसम में ग़ुलाब है कि खिलते रहेंगे अरमान होते है इन्हें, क़िताबों में छुपाने का यूँ कहे तो राह तकते ,एक अरसा सा गुजर गया इंतज़ार है फिर भी..उस बहार के आने का बीते लम्हों के निशां ,ढूढ़ते है अब भी जाने क्यूँ हसरत है फिर,उन गलिओं में जाने का,खो जाने का @विकास ©Vikas sharma #Thinking खो जाने का