इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के....मशहूर शायर मिर्जा गालिब का यह शेर आज भी जीवंत है। यही शेर नहीं बल्कि उनके द्वारा लिखे गए तमाम शेर आज भी पढ़े जाते हैं। ऐसे मशहूर शायर की पुण्यतिथि पर हिन्दुस्तान से बातचीत में पद्मभूषण महाकवि गोपालदास नीरज ने कहा कि गालिब की शायरी के बिना उर्दू अदब अधूरी है। गालिब सिर्फ नाम नहीं बल्कि उर्दू शायरी का वह मुकाम है जहां तक पहुंचने हर फनकार तरसता है।
शायर असदुल्ला खान मिर्जा गालिब का जन्म आगरा में 27 दिसम्बर 1797 में हुआ था। वहीं उन्होंने आखिरी सांस 15 फरवरी 1869 में ली थी। महाकवि नीरज कहते हैं कि उर्दू शायरी में मिर्जा गालिब से बड़ा नाम कोई नहीं हो सकता। वहीं उर्दू अदब मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी के बग़ैर अधूरा है।
ग़ालिब की शायरी ने उर्दू अदब को एक नया झरोखा दिया। जिससे सभी ने अपने-अपने हिस्से के जीवन को देखा। ग़ालिब की शायरी का बहुत बड़ा हिस्सा फारसी में है। उन्होंने जितना लिखा है वो ही आने वाले कई ज़मानों तक लोगों को सोचने पर मजबूर करने के लिए काफी है। उर्दू से ज्यादा मिठास किसी भाषा में नहीं। यह तहजीब की भाषा है। इस भाषा में ही मिर्जा गालिब की शायरी में बौद्धिक रुमानीयत झलकती है।
अलीगढ़ के भारत भूषण ने निभाया था ग़ालिब का किरदार
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